छात्रों को सर्वांगीण विकास के लिए गुरुकुलीय शिक्षा की आज नितान्त आवश्यकता है। प्रकृति के परिवेश में भारतीय संस्कृति की जानकारी, शिक्षा के साथ सत्य, करुणा और ईमानदारी जैसे जीवन मूल्य जहां सिखाये जाते हैं।
जहां अनुशासन, शिष्टाचार, मर्यादा के साथ नैतिकता के गुण विकसित किए जाते हैं।
जहां प्राचीन और अर्वाचीन विद्या, शिक्षा के साथ कला-कौशल, योग, शिल्प, गायन, भाषण, नेतृत्व का प्रशिक्षण दिया जाता है।
जहां पढ़कर एक छात्र मानवीय गुणों से भरपूर, अपनेपन के साथ सामाजिक समरसता से युक्त होता है। देश भक्ति, मातृ-पितृ भक्ति, ईश्वर भक्ति के साथ गुरुजनों और वरिष्ठों के साथ सम्मान देना सीखता है। महान चरित्र का धनी, वीर-धीर बनकर समाज को नेतृत्व देने में सक्षम होता है। सभ्यता, संस्कृति, संस्कार के स्वस्थ मानसिकता को अपनाता है, ऐसी है यह हमारी गुरुकुल परम्परा ।
गुरुकुल पूर्णतः आवासीय शिक्षा का एकान्त स्थान होता है, जहां गुरु व शिक्षक के निर्देशों का पूर्णतः पालन करते हुए विद्यार्थीगण अपनी दिनचर्या के सभी कार्य स्वयं पूर्ण करते हैं। इससे विद्यार्थियों को आत्मनिर्भरता के गुण विकसित करने के साथ-साथ स्वयं सेवक बनने का अवसर मिलता है।
आज आवश्यकता है छात्रों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की विद्या, शिक्षा, तकनीकि के साथ पूर्ण भारतीय संस्कृति की छाप जगाने की। ताकि वे अपने कुल परिवार और राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य को भी समझें। उन्हें अपने इतिहास के बोध के साथ राष्ट्र स्वाभिमान की अनुभूति भी हो।
वे राष्ट्रीय अखण्डता के प्रति भी सजग हों।
आज मदरसों की, कॉन्वेंट स्कूलों की भरमार तो है, परंतु गुरुकुल प्रणाली के आधुनिक विद्यालयों का घोर अभाव है। इसीलिए हमारा संकल्प है-
महाकुम्भ के अवसर पर पूज्य गुरुदेव द्वारा 10 गुरुकुलों के स्थापना की घोषणा भी की गई है।
संस्कार केन्द्रों की स्थापना – परिवार में संस्कारपूर्ण वातावरण बने, धर्म की बेल बढ़े, नई पीढ़ी में सनातन मूल्यों का जागरण हो इस निमित्त गुरुदेव ने देशभर में 108 संस्कार केन्द्र खोलने का निश्चय लिया है।
इस महा अभियान में हमें राष्ट्र प्रेमीजनों से दान- सहयोग की आवश्यकता है। शिक्षा हेतु भवन निर्माण, अन्नदान, भोजन- भण्डारा में सी. एस. आर. (C.S.R.) के अन्तर्गत भी आप दान कर सकते हैं।
आदिकाल से ही मनुष्य शाश्वत शांति और आनंद का मार्ग खोजता रहा है, पर समस्त धन सम्पदा, पद-प्रतिष्ठा, साधन-सुविधा में उसे शांति और आनन्द की प्राप्ति नहीं हो पायी। वेदों में संदेश है कि केवल ईश्वर को जानकर ही मानकर नहीं, आनंद- परमशांति को प्राप्त कर सकते हो उसे जानने का मार्ग तत्वज्ञान और साधना है।
तुम उस मनुष्य अज्ञान, अभाव, अन्याय, अकर्मण्यता के पाशों से समाज में जकड़ा हुआ है। समाज के इस पाश से धर्म द्वारा ही छुड़ाया जा सकता है। मनुष्य जन्म-जन्मातरों के कर्मभोग के कारण आवागमन के चक्र में फंसा घोर दुःख भोग रहा है, अतः उसे मुक्ति का मार्ग दर्शाये जाने की आवश्यकता है।
आज धर्म मानने से अधिक जानने की आवश्यकता है। ईश्वर की अनुभूति कराने की आवश्यकता है। धर्म-अधर्म, कर्तव्य- अकर्तव्य, पाप-पुण्य, नित्य- अनित्य, विनाशी और अविनाशी को तत्व से समझाने जनाने की आवश्यकता है। अतः सत्संग भी चाहिए, स्वाध्याय भी साधना भी चाहिए, सेवा भी सहानुभूति भी और संतुलन भी ।
मनुष्य की यात्रा पशुलोक से शिवलोक की यात्रा है, प्रदर्शन से आत्मदर्शन की यात्रा है। यह विषाद को प्रसाद में बदलने की यात्रा है। यह वासना को उपासना में रूपांतरण की यात्रा है। इस यात्रा का निर्देशक सत्य-धर्म उपदेष्टा गुरु है। उसका उद्देश्य ही है, पूर्ण विश्व में, विश्व मानव में पूर्ण जागृति लाना।
जागृति देव संस्कृति की ऋषि परम्परा की। श्री राम के आचरण की, श्री कृष्ण के संदेश उपदेश और आदेश की । वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, सद्शास्त्र से लेकर पुराणों के भाव दर्शन और तत्वज्ञान की जागृति चाहिए धर्म के विशुद्ध स्वरूप को जन चेतना में लाये जाने की। इसी भाव-भावना को पूर्ण करते हुए पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज ने विश्व जागृति मिशन की स्थापना की।
पूज्यश्री द्वारा “सनातन की व्यापक परिधि में देव संस्कृति एवं लोक संस्कृति जागरण” के संकल्प से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के जन्मोत्सव रामनवमी के पावन अवसर, 24 मार्च, 1991, नई दिल्ली में स्थापना की। इस मिशन से देश-विदेश में ध्यान, साधना, , सत्संगों की लहर प्रारम्भ हुई। इससे करोड़ों लोगों में धर्म-अध्यात्म की जागृति आई । गुरुदेव के आध्यात्मिक प्रयोगों से करोड़ों युवा उनके मार्गदर्शन में व्यक्तित्व निर्माण, समाज निर्माण, राष्ट्र एवं संस्कृति जागरण हेतु उन्मुख हुए।
जप-तप, आज इस मिशन की ध्वजा अपने 40 आश्रमों, 88 मंडलों, 10 अंतर्राष्ट्रीय मण्डलों, 24 देव मंदिरों के माध्यम से देश-विदेश तक फहर रही है। इस समय देवालय सेवा, सत्संग सेवा, शिक्षा सेवा, गुरुकुल सेवा, स्वास्थ्य सेवा, गौ सेवा, अनाथाश्रम सेवा, वृद्धाश्रम सेवा जैसे प्रकल्पों के अंतर्गत देश भर में करुणासिंधु जैसे धर्मार्थ अस्पताल, 10 से अधिक गौशालायें, वृद्धाश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, अनाथालय, 3 गुरुकुल विद्यापीठ, उपदेशक महाविद्यालय, ज्ञानदीप विद्यालय, आदिवासी क्षेत्रों में पब्लिक स्कूल, कौशल विकास केन्द्र संचालित हैं। नई दिल्ली का आनन्दधाम आश्रम एवं विश्व जागृति मिशन मुख्यालय गुरुदेव के सम्पूर्ण सेवा प्रकल्पों का निर्वहक बनकर कार्य कर रहा है।
भारत सहित अमेरिका, कनाडा, हांगकांग, सिंगापुर, दुबई, नाइजीरिया, जकार्ता, थाईलैण्ड, फिलीपीन्स आदि देशों तक के करोड़ों शिष्य आज अपने गुरुनिर्देशन में परमात्मा की इस वसुधा को फिर से सुख, समृद्धि, शांति से लहलहाने, धर्मशीलता की वेल बढ़ाने हेतु समर्पित सेवायें दे रहे हैं। जिससे लोगों की दुःख पीड़ायें मिट रही हैं, साधनामय जीवन की प्रेरणायें जग रही हैं।
हमारा संकल्प- आगामी वर्षों में देशभर में 10 गुरुकुलों और 108 संस्कार केंद्रों की स्थापना एवं इन्हें संचालित करने की गुरुदेव की योजना है। पूज्य महाराजश्री की साधना, सेवा, करुणा, आध्यात्मिक सनातनी भक्तिमय क्रांति आधारित इस ‘धार्मिक पुनर्जागरण’ के लिए आइये! मिलकर कदम बढ़ायें।
सनातन ही शाश्वत है। जीवन मूल्यों की शाश्वत धरोहर है सनातन संस्कृति। यह विश्व मानव में मानवीयता के गुणों को जागृत करने वाली संस्कृति है। इसमें नैतिकता, प्रेम, करुणा और सौहार्द गुणों का समावेश है। यह समय, स्थान, परिस्थिति से परे निरन्तर बनी रहने वाली चैतन्य शक्ति है। यह शांति की भावना के साथ “सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय” का उद्घोष करती है।
इसमें भारतीय धर्म, दर्शन के साथ जीवन जीने का ढंग और महान परम्पराओं का समावेश है।
यह संस्कृति आध्यात्मिक उन्नति, शांति, समृद्धि, विश्व कल्याण के साथ अहर्निश जुड़ी है।
यह पर्यावरण संरक्षण के साथ “जीयो और जीने दो’ का संदेश देने वाली संस्कृति है ।
इसमें सबके सुख, सौभाग्य, आरोग्य, वैभव के साथ आत्मविकास, आत्मनिर्माण का संकल्प जुड़ा है
यह संस्कृति अपने राष्ट्र गौरव के साथ अपने अवतारी ऋषियों, तपस्वियों, वीर बलिदानियों के तप त्याग को पूजने वाली संस्कृति है।
“माता भूमिः, पुजोऽहम् पृथिव्याः।” इस संस्कृति का उद्घोष है।
जहां-जहां यह सनातन संस्कृति है, वहां-वहां जन-जन के प्रति सौहार्द, करुणा, प्रेम और सहनशीलता है।
यह राष्ट्रीय अखण्डता की पोषक संस्कृति है। यह माता-पिता, गुरुजनों के सम्मान की संस्कृति है। यह माता, बहन, बेटी, नारी जाति के प्रति आदर देने वाली संस्कृति है ।
गौ, गुरु, गीता, गायत्री, गंगा का गौरव मान करने वाली संस्कृति हैं।
यह संस्कृति विश्वधरा के मानवों को एक परिवार मानने वाली संस्कृति है ।
आज इस संस्कृति के संरक्षण व सुरक्षा की नितान्त आवश्यकता है।
दुनिया भर के बर्बर आक्रमणकारी शताब्दियों से इसे कुचलने में लगे रहें। इनके द्वारा हमारे प्रतीक बदले गये, मन्दिर – विद्यालय टूटे, हमारे ग्रन्थ जले, भयंकर आक्रमणों-अत्याचारों से धर्म परिवर्तन किये गए। इतिहास बदले, धर्मग्रन्थों में मिलावट हुई, शिक्षा-विद्या के आधुनिकीकरण के नाम पर हमारे युवाओं को अपने महापुरुषों, परम्पराओं, पर्वों से विमुख करने का कुप्रयास हुआ।
राम-कृष्ण को नकारने की चेष्टायें हुई। राष्ट्रगान राष्ट्रभक्ति की उपेक्षा, राष्ट्रप्रेमियों के प्रति उदण्डता देखने को मिलने लगी।
आज संकल्प का दिन है, अपनी सभ्यता-संस्कृति के प्रति समर्पित होने का दिन है।
बच्चों युवाओं को इससे अवगत कराने का दिन है आज।
आइये! सब मिलकर संस्कृति बचाने का संकल्प लें।
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