मनाली में करे चंद्रायण व्रत
मानव जीवन में पापकर्मों और कुसंस्कारों का परिशोधन आवश्यक है। प्रायश्चित इसका मार्ग है। धर्मशास्त्रों में इसके लिए कई विधि-विधानों का जिक्र मिलता है। इसमें चंद्रायण व्रत सर्वोपरि है।
वस्तुतः चंद्रमा की सोलह कलाओं के साथ जप-तप व साधना, चंद्रायण व्रत है। साधक चंद्रमा की सोलह कलाओं के साथ जप-तप करते हैं। जैसे-जैसे चंद्रमा की अपनी कलाएं परिवर्तित होती हैं, वैसे-वैसे साधक अपनी साधना पूरी करता है।
पूर्णमासी से चंद्रायण व्रत प्रारंभ होता है। ठीक एक माह बाद, अर्थात् अगली पूर्णमासी को यह समाप्त होता है। इसमें मनुष्य अपने आहार को सोलह भागों में बांटता है। प्रथम दिन (पूर्णमासी) को चंद्रमा सोलह कलाओं वाला होता है। अतः इस दिन व्यक्ति पूर्ण आहार लेता है। आगे इस व्रत के दौरान वह पूर्णमासी के पूर्ण खुराक का सोलहवां हिस्सा प्रतिदिन कम करते जाता है।
इसे यों समझें। यदि किसी मानव का पूर्ण आहार एक सेर है, तो प्रतिदिन एक छटांक आहार कम करते जाना चाहिए। कृष्णपक्ष का चंद्रमा जैसे प्रतिदिन एक-एक कला घटाते जाता है, वैसे ही व्यक्ति को रोजाना एक-एक छटांक आहार कम करते जाना चाहिए। अमावस्या के दिन चंद्रमा अपने सोलवें कला के साथ होता है, बिल्कुल भी दिखाई नहीं देता। इस दिन और अगले दिन व्यक्ति को आहार का बिल्कुल भी सेवन नहीं करना चाहिए। इसके बाद शुक्ल पक्ष के दूज को चंद्रमा एक कला निकलता है और धीरे-धीरे बढ़ता चला जाता है। अर्थात् अपनी सोलह कलाओं को दोहराने लगता है। व्यक्ति को भी इसी के साथ अपने आहार की मात्रा को बढ़ाते हुए पूर्णमासी तक पूर्ण आहार तक पहुंच जाना चाहिए।
इस एक माह तक साधक को आहार-विहार का संयम, स्वाध्याय, सत्संग में प्रवृति, सात्विक जीवनचर्या व साधना को उत्साहपूर्वक अपनाना चाहिए।
Gurukripa guru sanidhy se hi sambhavna h nitantran