पुरुषोत्तम मास (मलमास) में पूजा-पाठ, यज्ञ-अनुष्ठान से पाएं अनंत पुण्य-फल

पुरुषोत्तम मास (मलमास) में पूजा-पाठ, यज्ञ-अनुष्ठान से पाएं अनंत पुण्य-फल

पुरुषोत्तम मास (मलमास) में पूजा-पाठ, यज्ञ-अनुष्ठान से पाएं अनंत पुण्य-फल

हिंदू धर्म में जहां अधिकमास का विशेष महत्व है, वहीं ज्योतिष शास्त्र के लिहाज से भी इसे काफी विशेष माना जाता है। इस वर्ष जो अधिकमास आने वाला है, उसे काफी शुभ माना जा रहा है। ज्योतिष विद्वानों का मानना है कि ऐसा शुभ संयोग पुरुषोत्तम मास 160 वर्ष बाद बन रहा है और इसके बाद ऐसा शुभ मलमास 2039 में आएगा।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जब धरती के घूमने के कारण दो वर्षों के बीच करीब 11 दिनों का फासला हो जाता है तो तीन साल में करीब एक महीना के बराबर का अंतर आ जाता है। इसी अंतर के कारण हर तीन साल में एक चंद्र मास आता है। हर तीन साल में बढ़ने वाले इस माह को ही अधिकमास या मलमास कहा जाता है। भारतीय हिंदू कैलेंडर मे सूर्य और चंद्र की गणनाओं के आधार पर चलता है। अधिकमास दरअसल चंद्र वर्ष का एक अतिरित्तफ़ भाग है, जो हर 32 माह, 16 दिन और 8 घंटे के अंतर से आता है। भारतीय गणना पद्धति के अनुसार हर सूर्य वर्ष 365 दिन और 6 घंटे का माना जाता है। वहीं चंद्र वर्ष 365 दिनों का माना जाता है। यानी दोनों में करीब 11 दिनों का अंतर होता है, जो तीन वर्ष में एक माह के लगभग हो जाता है। इसी कारण इसे अधिकमास कहा जाता है।
धार्मिक मान्यता है कि अधिकमास के अधिपति स्वामी भगवान विष्णु हैं और पुरुषोत्तम भगवान विष्णु का ही एक नाम है, इसलिये अधिकमास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। जब अधिकमास को कोई नहीं अपना रहा था तो भगवान विष्णु की कृपा पर भगवान श्रीकृष्ण ने अधिकमास को अपनाकर उसे पुरुषोत्तम मास का नाम देकर इस महीने को सर्वपूज्य बना दिया। कहा जाता है पुरुषोत्तम मास की पूजा साक्षात् नारायण भगवान श्रीकृष्ण की पूजा है। इस महीने में गीता-रामायण, भागवत, विष्णु-पुराण, विष्णु सहड्डनाम के पाठ जाप-यज्ञ-अनुष्ठान से अनन्त पुण्य फल मिलता है।
आनन्दधाम के ‘‘युगऋषि पूजा एवं अनुष्ठान केन्द्र’’ में पुरुषोत्तम मास में की जाने वाली सभी प्रकार की पूजा-पाठ यज्ञ-अनुष्ठान की व्यवस्था उपलब्ध है। भक्तजन ऑनलाइन यजमान बनकर इस पवित्र और पुण्यमय पुरुषोत्तम मास का पुण्य लाभ लें।

विश्वव्यापी स्वर्णिम शिक्षा व्यवस्था का संदेश देते हमारे गुरुकुल | Vishwa Jagriti Mission

आधुनिक शिक्षानीति के परिप्रेक्ष्य में हमारे गुरुकुल
किसी राष्ट्र के चरित्र को बदलने में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। विश्व के अनेक देशों ने सदियों से अपनी शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाकर ऊँचाइयां छुईं, तो अनेक देश सही शिक्षानीति के अभाव में दरिद्रता, कंगाली, बदहाली के कगार पर आ गये। वर्तमान भारत एवं उसकी संस्कृति में अनेक परिवर्तन देखने को मिले हैं, जिसे तत्कालीन शासकों द्वारा शिक्षा नीति के सहारे लाये गये। अंग्रेजी शिक्षा नीति लार्ड मैकाले का दंश तो आज तक भारत को झेलना पड़ रहा है। वर्तमान में भारत की शिक्षा नीति में नवीनता लाकर देश के प्राचीन गौरव को वापस लाने की दिशा में हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री द्वारा उठाया कदम मील का पत्थर साबित होगा, ऐसी आशा की जा सकती है। पुनः भारत को इसके द्वारा विश्व गौरव पाने का सुयोग मिलेगा, जैसा कभी हमारे ऋषियों द्वारा स्थापित गुरुकुल परम्परा का आदर्श था। गुरुकुल शिक्षा पद्धति को भारत देश व विश्ववासी स्वर्णिम शिक्षा व्यवस्था का दर्जा आज भी देते हैं। प्रस्तुत है हमारी गुरुकुल शिक्षा पद्धति की कुछ विशेषतायें—।
हमारी गुरुकुल परम्परा एक सोच है, संकल्प है, स्वभाव है। अवधारणा है, जीवनशैली है, समाज व्यवस्था के लिए नेक इंसान देने की टकसाल है। हमारे प्राचीन ऋषियों द्वारा मानव निर्माण के लिए तैयार की गई शोधपूर्ण व्यवस्था है। जहां प्रवेश करने वाला विद्यार्थी गुरु व आचार्य के संरक्षण में कुछ वर्ष बिताने के बाद वह बालक दिखता तो उसी आकार में ही है, पर उसके अंतःकरण में श्रेष्ठ देवत्व भाव उदित हो जाते हैं। उसकी प्रकृति में आमूल चूल बदलाव आते हैं।

प्राणीमात्र के प्रति सम्वेदनाः
ईमानदारी, सहिष्णुता, सौहार्द, सेवाभाव, परिवार व्यवस्था और अतिथि सत्कार, अन्य लोगों के काम आना, दूसरों की सेवा, सहायता व उपकार करना गुरुकुल से निकलना विद्यार्थी अपना सौभाग्य समझता था। ऐसे ही दिव्य आचरण की श्रेष्ठता और चरित्र की उच्चता के चलते भारत विश्व गुरु रहा। खुद का हित साधन करने से पहले औरों के हित का ध्यान रखने की परम्परा भी तो हमारी रही। यहां लोग खाने से ज्यादा खिलाने में आनन्द महसूस करते हैं। यहां की सभ्यता में आहार खुद ग्रहण करने से पहले उस चींटी, गाय, कुत्ता आदि पालतू व अन्य सान्निध्य के जीवों के आहार का ख्याल रखा जाता था। प्रसाद स्वरूप बचा हुआ भोजन खुद ग्रहण करने का यहां रिवाज आज भी बहुत से भारतीय परिवारों में देखी जाती है, यह सब कुछ गुरुकुल की ही देन है।

सेवा-सद्भावः
यहां गरीब से गरीब भी परोपकार के लिए बाग-बगीचे लगवाने, कुएं-तालाब खुदवाने, अन्न क्षेत्र चलवाने, अस्पताल-धर्मशाला खुलवाने, देवालयों का निर्माण करवाने, विद्यालयों में शिक्षण आदि जनकल्याणकारी कार्यों को अंजाम देने में गौरवान्वित महसूस करता था। हमारी गुरुकुल शिक्षा नीति हर भावी पीढ़ी में यही संस्कार तो उगाता आ रहा है सदियों से। वास्तव में गुरुकुल ऐसे ही दिव्य मानवों के निर्माण के केन्द्र हैं, जहां गढ़े गये विद्यार्थी परिवार-समाज के बीच अपने शुभ संस्कारों, ज्ञान, चरित्र, स्वभाव, सहकारिता पूर्ण दृष्टिकोण के सहारे देवत्व की स्थापना करते हैं और धरती पर स्वर्ग ले आने के लिए जीवन जीते हैं।
गुरुकुल पद्धति के विद्यार्थियों को प्राचीन संस्कारपरक आर्ष ग्रंथों की शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान परक विषयों के प्रति भी निष्णात बनाया जाता है। इन्हें धार्मिक सद्ग्रंथों का विज्ञान सम्मत अध्ययन इसलिए कराया जाता है, जिससे वे अपने जीवन को विसंगतियों वाले अन्धकार व अविद्या से मुक्त कर समाज, राष्ट्र तथा विश्व को दिव्य ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर सकें। गुरुकुलों की दिनचर्या भी विज्ञान सम्मत एवं ऋषि परम्परा पूरक सेवा संकल्पों के अनुरूप रखी जाती है।

मनोविज्ञान का संयोजनः
यहाँ बच्चों को ऐसा वातावरण दिया जाता है कि उनका जागरण एवं शयन आनन्द से भरा रह सके। प्रातःकाल जागरण, भगवद् स्मरण, उषापान, नित्यकर्म, व्यायाम, यज्ञाग्निहोत्र, प्रातराश, अध्ययन, दोपहर भोजन, विश्राम, पुनः अध्ययन, सन्ध्योपासना, रात्रि भोजन, भ्रमण, अध्ययन, फिर ईशस्मरण के साथ रात्रि शयन तक सूक्ष्म मनोविज्ञान का कुशल संयोजन देखने को मिलता है। गुरुकुल के विद्यार्थियों की इस तपः पूर्ण दिनचर्या में उनके आचार्य साथ-साथ सहभागीदार बनकर चलते हैं।
इस प्रकार बच्चों की बहुमुखी एवं सर्वांगीण प्रतिभा विकास का अनुपम उदाहरण होते हैं यह गुरुकुल। वर्तमानकाल में स्कूल, कॉलेज की शिक्षाओं में विद्या की कीमत ली जाती है, जबकि आज भी गुरुकुलों का लक्ष्य राष्ट्र की नयी पीढ़ी गढ़ना है, वह भी निःशुल्क।

सर्वांगीण विकासपरक शिक्षणः
विद्यार्थी एवं आचार्य के बीच गहन समन्वय एवं उनके आचार्यों की सतत करुणाभरी दृष्टि के परिणाम स्वरूप गुरुकुलों में शिक्षा ग्रहण करने वाले सभी विद्यार्थी एक से बढ़कर एक संवेदनशील, सेवाभावी, मेधावी, कुशाग्र बुद्धि वाले बनते हैं। ये आचार्यों के दिशा निर्देशन में अपने पाठ्यक्रम को पूरा करते ही हैं, साथ ही प्राचीन-अर्वाचीन वांगमय वेद-उपनिषद, रामायण, पुराण, स्मृति-ग्रंथ, महापुरुषों के जीवन चरित्र और अन्य सामाजिक, वैज्ञानिक, पठनीय साहित्य के स्वाध्याय, चिंतन-मनन-शोध में भी अहर्निश संलग्न रहते हैं।
बच्चों का सर्वांगीण विकास हो इस हेतु संगीत सहित अनेक प्रकार की जीवन से जुड़ी शिक्षा से भी जोड़कर इनमें समाज के लोकरंजन से लोकमंगल की अवधारणा जगाई जाती है। कर्मकाण्ड की कक्षाओं से लेकर जप-तप-यज्ञ-अनुष्ठान-ज्योतिष विद्या, दर्शन, नीति, व्याकरण आदि में भी विशेष अभिरुचि जागृत की जाती है। विद्यार्थियों को शारीरिक रूप से सबल बनाने के लिए नित्य नियम पूर्वक व्यायाम, खेल-क्रीड़ा की विशेष ट्रेनिंग देकर प्रतियोगिताओं के लिए इन्हें तैयार किया है, जाता जिससे राष्ट्रहित में अतिरिक्त कुशलता ला सकें। वास्तव में विद्यार्थियों की प्रतिभा पूर्ण विकसित हो, इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्हें दिव्य वातावरण देने का कार्य गुरुकुल करते हैं। ऐसा विद्यार्थी गढ़ना जिससे यह राष्ट्र अपने गौरवपूर्ण परम वैभव को पा सके, यही गुरुकुल और आचार्य दोनों का लक्ष्य होता है।

खेल, श्रम और सेवापरक शिक्षणः
मन को एकाग्र एवं व्यक्तित्व के विकास के लिए खेल, श्रम और सेवा भी महत्वपूर्ण क्रिया है, यह बात गुरुकुल में प्रारम्भ से ही अनुभव करायी जाती है। शारीरिक विकास के लिए खेल, श्रम और सेवा तथा व्यायाम से उसे जोड़ा जाता है। ऋषियों द्वारा अनुसंधित उपयोगी योगासन, सर्वांगपूर्ण व्यायाम इस विधि से कराया जाता है कि विद्यार्थियों के जीवन में एकाग्रता एवं प्रसन्नता पैदा हो सके। नियुद्ध जैसी कलायें गुरुकुल की प्राचीन विरासत में हैं, इससे भी विद्यार्थी जुड़ते हैं।
हंसने से मस्तिष्क विकसित होता है, यह कहावत नहीं विज्ञान है। गुरुकुलों में विद्यार्थी को दिन में अनेक बार निःसंकोच होकर हंसने का अवसर दिया जाता है। हंसने का आशय किसी पर व्यंगात्मक प्रयोग नहीं, अपितु अच्छी प्रवृत्तियों पर आंतरिक प्रसन्नता भाव जगाना है। इसी प्रकार स्वस्थ पूर्ण श्रम से बच्चे में धैर्य भाव विकसित होता है। आज की शिक्षा में तो यह सब गायब सा हो गया है। मन में गांठ खोलने, स्वभाव को सौम्य, शिष्ट और प्रसन्नचित हंसमुख बनाकर रखना बच्चों के साथ देश के उज्जवल भविष्य का संकेत है। इसलिए गुरुकुल में योग-व्यायाम खेल, श्रम, सेवा के कई बहाने दिये जाते हैं।

व्यावहारिक चुनौतियों से जुड़ावः
सफलता के शिखर पर पहुंचने के लिए बच्चों को ऐसे व्यवहार परक सूत्र सिखाये जाते कि छोटी-छोटी असफलताओं में वह हताश न हों, सफलता की ऊंचाई पर पहुंचकर, वहां स्थिर रहने, निरन्तर अपनी क्षमताओं को बढ़ाते, विकास की यात्रा को लगातार जारी रखने के अभ्यास कराये जाते। इसके लिए उन्हें समाज व्यवस्था के अनेक व्यावहारिक प्रयोगों से गुजारा जाता है। व्यवहारिक सूत्रों में सफलता के लिए सबसे पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करना, लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण, असफलता से डरकर प्रयास कभी न छोड़ना, आलस्य और प्रमाद को अपने पास मत आने देना, अहंकार से सदैव बचकर रहने की कला, सीखने की लालसा, लगन और मेहनत को बढ़ाते रहना, हिम्मत और हौसला कभी मत हारना, चुनौतियों का डटकर सामना करना। जैसे सूत्रों का व्यावहारिक प्रयोग उनसे कराये जाते, ताकि बुरी से बुरी विपरीत स्थिति में वे हताश-निराश न हों और अपने को खड़ा कर सके। श्रेष्ठ स्तर के निर्णय करने की आदत बनाना भी उनके शिक्षण का हिस्सा रहता। संतुलन बनाकर शांति से परिस्थितियों पर विचार करना आदि गुण गुरुकुल के आचार्यों द्वारा विद्यार्थियों में विकसित कराये जाते हैं।

पितरों को सम्मान देने का पक्ष है पितृपक्ष

पितरों को सम्मान देने का पक्ष है पितृपक्ष

पितरों को सम्मान देने का पक्ष है पितृपक्ष

हिन्दू धर्म के शास्त्रें में तीन प्राकर के ऋणाों के बारे में बताया गया है। देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण और इनमें से पितृ ऋण से निवारण हेतु ही पितृ यज्ञ अर्थात् श्राद्ध कर्म का वर्णन किया गया है। प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक के काल को पितृ पक्ष या श्राद्ध पक्ष कहते हैं। श्राद्ध पितृ पक्ष के अंतिम दिन सर्वपितृ अमावस्या या महालया अमावस्या के रूप में जाना जाता है। महालया अमावस्या पितृ पक्ष का सबसे महत्वपूर्ण दिन होता है। जिन व्यक्तियों को अपने पूर्वजों की पुण्यतिथि की सही दिन-तारीख नहीं पता हो, वे लोग इस दिन उन्हें श्रद्धांजलि और भोजन समर्पित करके याद करते हैं। पितरों की तृप्ति के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड दान अर्थात् पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन, जल आदि को ही श्राद्ध कहते हैं। मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर अपने पुत्रें-पौत्रें के साथ रहने आते हैं, अतः इसे कनागत भी कहा जाता है। तीन पूर्वज में पिता को वसु के समान, रुद्र देवता को दादा माना जाता है। श्राद्ध के समय यही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। हिन्दू शास्त्रें के अनुसार पितृपक्ष में तर्पण व श्राद्ध करने से व्यक्ति को पूर्वजों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। जिससे घर में सुख-शांति एवं समृद्धि बनी रहती है। शास्त्रें के अनुसार पितर ही अपने कुल की रक्षा करते हैं।

श्राद्ध के सम्बन्ध में हमारे धर्म-ग्रन्थों में उल्लेख है

(a). गरुड़ पुराण के अनुसार ‘पितृ पूजन (श्राद्ध कर्म) से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, पशु, सुऽ, धन और धान्य देते हैं।’
(b) मार्कण्डेय पुराण के अनुसार ‘श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, सन्तति, धन, विद्या सुऽ, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते हैं।’
(c). ब्रह्मपुराण में वर्णन है कि ‘श्रद्धा एवं विश्वासपूर्वक किए हुए श्राद्ध में पिण्डों पर गिरी हुई पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदों से पशु-पक्षियों की योनि में पड़े हुए पितरों का पोषण होता है। जिस कुल में जो बाल्यावस्था में ही मर गए हों, वे सम्मार्जन के जल से तृप्त हो जाते हैं।’
(c). ब्रह्मपुराण के अनुसार जो व्यत्तिफ़ शाक के द्वारा भी श्रद्धा-भत्तिफ़ से श्राद्ध करता है, उसके कुल में कोई भी दुःऽी नहीं होता।
(d). विष्णु पुराण के अनुसार श्रद्धायुत्तफ़ होकर श्राद्ध कर्म करने से पितृगण ही तृप्त नहीं होते, अपितु ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, दोनों अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु, वायु, विश्वेदेव, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी भी तृप्त होते हैं।
(e). यमस्मृति के अनुसार ‘जो लोग देवता, ब्राह्मण, अग्नि और पितृगण की पूजा करते हैं, वे सबकी अंतरात्मा में रहने वाले विष्णु की ही पूजा करते हैं।’
इसलिए हर व्यक्ति को चाहिये कि भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से प्रारंभ कर आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक सोलह दिन पितरों का तर्पण और उनकी मृत्युतिथि को श्राद्ध अवश्य करें। ऐसा करके आप अपने परम आराध्य पितरों के श्राद्धकर्म द्वारा आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक उन्नति को प्राप्त कर सकते हैं।

श्राद्ध में इसलिये दी जाती हैं ये जीवों को सेवाएं

1- गोमाता में तैंतीस कोटि देवों का निवास है।
2- कुत्ता केतु का प्रतीक है उसका रोना तथा असमय में भौंकना अशुभ है।
3- कौआ न्यायकारी शनि का वाहन है तथा पूर्वजों का परिचायक है।
4- चीटियां कर्मठता तथा भगवान विष्णु का प्रतीक हैं।
5- देवता तथा अन्य शक्तियां हमारी इच्छाओं एवं संकल्पों की पूर्ति करती हैं।
अतः पंचबलि करने से देवों की प्रसन्नता, अशुभ का निवारण, न्याय एवं पितरों का प्यार, भगवान विष्णु की तरह उदारता व गंभीरता तथा अनेक प्रकार की समस्याओं का समाधान प्राप्त होता है। पंचबलि से हमारे अन्न की शुद्धता होती है जिससे हमारी बुद्धि एवं मस्तिष्क की शुद्धि होती है।

ममता, करुणा, वात्सल्य से भरी ‘गौ’ माता को मिले संरक्षण

ममता, करुणा, वात्सल्य से भरी ‘गौ’ माता को मिले संरक्षण

गौ में माँ जैसी ममता, करुणा और वात्सल्य है, वह मानव मात्र का हित करने वाली है। ऐसे संवेदनशील प्राणी के लिए ऋग्वेद ‘गावो विश्वस्तर मातरः’ अर्थात् गाय विश्व की माता कहता है। अग्निपुराण-‘गावोः पवित्र्या मांगल्या गोषुः लोकाः प्रतिष्ठा’ अर्थात् गाय को पवित्र और मंगलदायिनी बताता है। इसीलिए यजुर्वेद गाय को ऐसा प्राणी मानता है जिसका कोई भी मूल्य नहीं दे सकता, क्योंकि गाय अमूल्य है ‘गोस्तु मात्र न विद्यते’।

परम पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज कहते हैं ‘गौ’ की हमारे पूर्वज इसलिए पूजा व रक्षा करते थे क्योंकि ‘गौ’ में माँ जैसी ममता, करुणा और वात्सल्य है, वह मानव मात्र का हित करने वाली है। पूज्यवर तो इस सृष्टि में मानव की तरह ही सम्पूर्ण जीवों के प्रति भी संवेदनशीलता, दया, करुणा भाव जन-जन में जगाने का संकल्प रखते हैं। जिससे सृष्टि के सुख, सौन्दर्य, आनंद को विकसित किया जा सके। वैसे हमारा भारत सत्य, अहिंसा एवं सदाचार के मूल्यों में विश्वास रखने वाला देश है। पर दुःखद कि गाय को लेकर हमारे समाज में एक बड़ा विरोधाभास है। एक ओर हम गाय को माता का स्थान देते हैं और गाय हमारी श्रद्धा हमारे प्रत्येक कर्म के साथ जुड़ी दिखाई पड़ती है। एक तरफ गौ ग्रास निकालने की परम्परा है, तो वहीं दूसरी ओर ‘गौ की हत्या’ की जाती है।

एक तरफ बताया जाता है कि गाय के दूध, दही, घी आदि से शरीर पुष्ट होता है। मूत्र में औषधीय गुण हैं, गोबर कृषि के लिए खाद का कार्य करता है और गौवंश से श्रेष्ठ खेती होती है। स्वावलम्बी जीवन-यापन की श्रृंखला गाय के साथ जुड़ी है। भगवान कृष्ण के साथ गोपाल, गोविन्द नाम उनकी गाय भक्ति के कारण ही जुड़ा है। भगवान राम के पूर्वज राजा दिलीप ने तो स्वयं वन में जाकर गाय की सेवा की थी। गाय के ये अनंत उपकार और मातृत्व सहित अनन्त भाव के बावजूद हम उसे
प्रताणित करने से बाज नहीं आते, जो दुःखद है। आज भी उस श्रद्धा के कारण हिन्दू समाज उसे पूजनीय मानता है, परन्तु अपनी दिनचर्या-जीवनशैली में धीरे-धीरे बदलाव से हम गौ माता से दूर होते जा रहे हैं।

यंत्रीकरण से खेती में किस प्रकार की तबाही हो रही है यह जगजाहिर है। लाखों, करोड़ों की सब्सिडी दी जाती है रासायनिक खाद के नाम पर उसके बाद भी किसान परेशान है और खेती हानि का धंधा बनती जा रही है। इसका कारण है कृषि का गाय से दूर होते जाना। गाय और गोवंश के कृषि प्रक्रिया से बाहर हो जाने पर न केवल धरती बंजर हो रही है, अपितु मानव के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो गया है। रासायनिकी से मानव के स्वास्थ्य एवं सुख-शांति पर गम्भीर संकट आ गया है, जिस पर ध्यान देना होगा। यद्यपि वैज्ञानिक

शोधों ने सिद्ध कर दिया है कि जो तत्व गाय के दूध में हैं, स्वास्थ्य एवं औषधीय दृष्टि से वह अन्य किसी भी दूध में नहीं है। गोमूत्र में कैंसर तक को ठीक करने के औषधीय गुण हैं। पर यह कहने मात्र से काम नहीं चलेगा, अपितु हमें इसे संरक्षण देना होगा। विश्व जागृत मिशन गाय की सेवा से लेकर उसके संरक्षण-
संवर्धन की दिशा में प्रयत्नशील है। आइये! आप सब भी गुरु के इस अभियान में हाथ बटायें। इस राष्ट्रीय और
धार्मिक आंदोलन से जुड़कर आप सभी उसे गति प्रदान करें। तभी जीवन का संतुलन ठीक रहेगा।

आनन्दधाम यज्ञ परिसर भी, श्रीयंत्र पीठ भी

आनन्दधाम यज्ञ परिसर भी, श्रीयंत्र पीठ भी
आनन्दधाम यज्ञ परिसर भी, श्रीयंत्र पीठ भी
हमारे धर्मशास्त्रें में गुरु ज्ञानियों के माध्यम से सिद्धियां प्राप्त करने की अनेकानेक विधियां बताई गई हैं। ज्ञान, योग, भक्ति, वैराग्य अनेक साधन परलोक को सुधारने और मुक्ति प्राप्त करने वाले बतलाए गए हैं, इसी प्रकार सांसारिक कार्यों में कृतार्थ होने के लिए अनेक प्रकार के यज्ञ, जप-तप, यंत्र-मंत्र आदि का विधान है, पर सबसे महत्वपूर्ण है श्रीयंत्र की साधना। मंत्र विज्ञान के साथ श्रीयंत्र साधना की अद्भुत प्रणाली साधक शिष्यों को पूज्य सद्गुरु महाराज जी ने सहजता से सबके लिए आननदधाम में सुलभ करवाया है।
सुख-समृद्धि से जुड़ी अमृत संजीवनी को दिलाने वाली इस साधना से जुड़कर साधक धन्य हो, उनका लोक-परलोक सुधरे, उनकी साधना मुक्ति और भुक्ति दोनों प्रदान करे यही तो गुरुवर का लक्ष्य है। पूज्यवर यह भी चाहते हैं कि साधकों में वर्ष भर के लिए अक्षय वैभव भण्डार भरे, इसके लिए लक्ष्मी-गणेश यज्ञ द्वारा श्रीयंत्र साधना की व्यवस्था प्रतिवर्ष करते हैं।
यज्ञीय-मंत्रों के साथ श्रीयंत्र को सिद्ध कर लोगों के कष्ट-क्लेशों को सुख-शांति में बदलने वाली यह आध्यात्मिक शक्ति आज से हजारों वर्ष पहले तपस्वी ऋषि-मुनि, संतों-महात्माओं, महापुरुषों को प्राप्त थी, वही शक्ति हमारे पूज्य गुरुवर समय-समय पर ‘मंत्र, पूजा, ध्यान आदि साधना शिविरों’ द्वारा साधक शिष्यों को प्रदान करते आ रहे हैं। शिष्य स्वकल्याण के साथ पारमार्थिक जीवन जीते हुए यह यज्ञ-मंत्र-यंत्र विधि प्रतिवर्ष हजारों साधक गुरुवर से प्राप्त कर अपने को धन्य अनुभव करते हैं।
असंख्यों का जीवन इन समृद्धियों से दिव्यता के पार सुख समृद्धि तक पहुंचा है। त्याग-वैराग्य के सहारे दुनिया को ऐश्वर्य से पार ले जाने की आध्यात्मिक कला है हमारे यहां की ‘श्रीयंत्र साधना’।
आनन्दधाम में श्रीयंत्रः
श्रीयंत्र कोई आड़ी-तिरछी रेखा भर नहीं है, अपितु यह श्रीयंत्र ब्रह्माण्ड के मूल में छिपे सुख, शांति, समृद्धि के मूल रहस्य की कुंजी है। श्रीयंत्र की वही अपार महिमा आज भी व्याप्त है। पर इसकी साधना द्वारा शुभ उपलब्धि दिलाने की शक्ति देश के विरले संतों में ही है। पूज्य सदगुरु सुधांशु जी महाराज उन्हीं संतों में एक हैं। यहां के आनन्दधाम आश्रम परिसर में स्थित श्रीयंत्र अपने शिष्यों के सुख-समृद्धि व शांति के भण्डार को भरने के लिए ही स्थापित है। कहते हैं लक्ष्मी, विष्णु की शक्ति से युक्त यह यंत्र घर में स्थापित हो, तो जीवन में भौतिक, आध्यात्मिक सुखों का अभाव हो ही नहीं सकता।
श्रीयंत्र को घर में स्थापित करने एवं उसके संपूर्ण लाभ के लिए ऐसे संत को माध्यम बनाना चाहिए, जिसने इसकी साधना को सिद्धि में बदला है। पूज्यवर उसी स्तर के हैं। कहते हैं कि जिस तीर्थ व आश्रम
परिसर में श्रीयंत्र विधि पूर्वक स्थापित होता है, वहां के दर्शन मात्र से दुर्भाग्य दूर होते हैं। यदि उस परिसर
में निर्धारित शुभ तिथि पर विशेष श्री प्रार्थना-पूजन के साथ श्रीयंत्र को ‘सद्गुरु’ के हाथ से प्राप्त करके
घर में स्थापित करते हैं, तो जीवन सुख-शांति-समृद्धि एवं धनवैभव से भरा रहता है।
श्रीयंत्र विज्ञानः
श्री यंत्र के संदर्भ में शंकराचार्य जी कहते हैं-श्रीयंत्र भगवती त्रिपुरा सुंदरी का यंत्र है। श्रीयंत्र देवी लक्ष्मी का निवास स्थल, संपूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति तथा विकास का प्रतीक व मानव के ऊर्जा शरीर का भी द्योतक है। इसलिए इसे सर्वव्याधिनिवारक, सर्वकष्टनाशक, सर्वसिद्धिप्रद, सर्वार्थ साधक, सर्वसौभाग्यदायक माना जाता है। गुरुदेव कहते हैं श्रीयंत्र भारतीय ऋषियों द्वारा अनुसंधित विशेष ऊर्जापूरक उपलब्धि है।
यह यंत्र ब्रह्मांडीय दिव्य ऊर्जा को आकर्षित कर साधक के चारों तरफ फैलाता रहता है। इसीलिए जो श्रीयंत्र के आभामंडल में आता है, उसको इसके दिव्य प्रभाव से शांति, स्वास्थ्य, सफलता एवं सम्पन्नता मिलती है। सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। इससे वास्तु, भूमि और गृहदोष दूर होते हैं। इसीलिए श्रीयंत्र को पौराणिक शास्त्रों में ‘यंत्र शिरोमणि’ (यंत्रराज) कहा गया है। विशिष्ट यज्ञ एवं मंत्रों से गुरुधाम में गुरु द्वारा आवाहित इस ‘श्रीयंत्र’ से मनुष्य के सातों ऊर्जा चक्रों में जागरण तक सम्भव है। इससे व्यक्ति स्वास्थ्य, लम्बा जीवन, सुख, सौभाग्य तथा सम्पन्नता प्राप्त करता है।
गणेश-लक्ष्मी यज्ञः
प्रत्येक वर्ष आनन्दधाम आश्रम में विश्वशांति, मानवकल्याण एवं यजमान भक्तों की सुख-समृद्धि के लिए श्रीगणेश-महालक्ष्मी के भव्य अर्चन के साथ पूज्य सद्गुरु महाराजश्री के कुशल निर्देशन और सान्निध्य, संरक्षण में कर्मकाण्डी विद्वानों द्वारा विधि पूर्वक साधकों के लिए प्रदत्त श्रीयंत्रें में प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। 108 कुण्डीय श्रीगणेश-लक्ष्मी महायज्ञ में श्री गणेश-लक्ष्मी जी के चित्र के साथ श्रीयंत्र की विधिवत पूजा-अर्चना द्वारा पूज्यमहाराजश्री अपने समस्त गुरुभक्तों के लिए सुख-समृद्धि और आरोग्यता की मंगलकामना करते हैं। ताकि आनन्दधाम परिसर के इस विशिष्ट प्रयोग द्वारा साधक-शिष्य, गुरुभक्त इस सौभाग्य से जुड़ें और अपने जीवन को सुख-शांति, समृद्धि से भर लें। हमारे भारतीय ऋषियों ने यज्ञ एवं मंत्रों पर इसीलिए विशेष जोर भी दिया है। सम्पूर्ण वेद से लेकर उपनिषद, दर्शन तक में मंत्रों और यज्ञों का ही महत्व है।
मंत्र सिद्धि साधना भीः
मंत्र का आशय है जिस सूत्र को मनन करते हुए मन से तृप्त हुआ जा सकता है, जिसके सहारे मन, बुद्धि की सामान्य अवस्था से पार पहुंचा जा सकता है। दूसरे शब्दों में मंत्र वह आवाज, ध्वनि, विचार है, जो साधक के मन-बुद्धि के उस पार से ध्वनित होती है, उसे संवेदित करती हैं मन्त्र कहलाते हैं। ‘‘मन्त्र वह परावाक् है, जो सद्चेतना की अतिसूक्ष्म क्षमता से ओतप्रोत है, जिसके उच्चारण का प्रभाव साधक के प्राण, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अन्तःकरण स्नायुतंत्र के साथ-साथ मानव के सम्पूर्ण षड्चक्रों पर पड़ता है। मानव के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण तीनों शरीर झंकृत हो उठते हैं, व्यक्तित्व के अतल गहराई में समाये सद्गुणों के जखीरे अपना रहस्य खोलने लगते हैं।’’ पूज्यवर ‘‘मंत्र सिद्धि साधना’’ द्वारा अपने शिष्यों में यही वैभव तो उतारना चाहते हैं।
वास्तव में सद्विचारों से ही मनुष्य का निर्माण होता है, विचारों से ही वह ऊंचा उठता है। क्योंकि मंत्र स्वयं में ऊर्जा स्त्रोत्र है, जो सकारात्मक चिंतन के सहारे प्रगति, उत्थान मार्ग से जोड़ता है। पर विचारों के नकारात्मक होने से मनुष्य का पतन भी होता है। इसलिए मंत्र जप के साथ-साथ साधक का सद्विचारों को चिंतन के लिए सत्संग, स्वाध्याय, संत, गुरु जैसे महापुरुषों की संगत जरूरी होती है। तभी मंत्र साधक अन्तरात्मा में मंत्र ऊर्जा के साथ प्राण ऊर्जा को धारण कर पाता है और भगवान से अपना सम्बन्ध जोड़ पाता है।
आनन्दधाम का महायज्ञ महोत्सवः
सद्गुरु श्री सुधांशु जी महाराज कहते हैं कि आज भी यज्ञ से वर्षा कराने, यज्ञ से शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शक्तियों की पुष्टि कर प्राणशक्ति की अभिवृद्धि कराना, उत्तम संतान प्राप्ति, अक्षय कीर्ति का विस्तार, धन-लक्ष्मी व ऐश्वर्य की प्राप्ति आदि का शास्त्रों में वर्णन है। उसकी पूर्ति सम्भव है। गुरुवर चाहते हैं कि मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही यज्ञमय बने। परन्तु ऐसा सम्भव न बन सके, तो गुरु अनुशासन के विविध यज्ञों में सहभागीदार बनकर शिष्य व साधकों का अपने जीवन का सहज कायाकल्प सम्भव बनाया जा सकता है।
इस दृष्टि से आनन्दधाम आश्रम परिसर में सम्पन्न होने वाले श्री गणेश-लक्ष्मी यज्ञ के महत्व को विशेष
अद्भुत कहें तो आश्चर्य नहीं। यह ‘श्री गणेश-लक्ष्मी’ महायज्ञ जीवन, घर-परिवार में विवेक, श्री शक्ति,
ऐश्वर्य, सुख-स्वास्थ्य के आवाहन का विशिष्ट प्रयोग है।
इस महायज्ञ में गुरु सान्निध्य में साधक विवेक के प्रतीक, जीवन से विघ्नों को दूर करने वाले प्रथम पूज्य गणेश एवं साधनों व धन-वैभव की अधिष्ठात्री मां लक्ष्मी की विशेष कृपा पाने के साथ विशेष मंत्रों द्वारा आहुतियां दी जाती हैं। गुरु संरक्षण में कराये गये ऐसे अन्य विशिष्ट यज्ञों से साधकों पर वर्ष भर देव शक्तिधाराओं की कृपा बनी रहती है।
अतः आप सभी जब भी गुरु निर्देश मिले आनन्दधाम पधारिये और गुरु संकल्पित गणेश-लक्ष्मी यज्ञों, श्रीयंत्र स्थापन साधना, मंत्र सिद्धि साधना सहित विविध धर्म अनुष्ठानों में भागीदार बनें और जीवन में सुख-शांति- समृद्धि पाने का सुअवसर प्राप्त करें।

कल्पना सृजन का प्रारंभ है | atmachintan | Sudhanshu ji Maharah

कल्पना सृजन का प्रारंभ है

1.आपकी विचारशक्ति और कल्पना ही आपको सम्भव की ओर ले जाती हैं !
2.जैसा चिंतन , मनन करते रहोगे वही आपके सबकॉन्सियस माइंड में उतरता जाता है*!
3.सबसे अधिक सहयोग करता है अफ्फर्मेशन यानी जो विचार आपने संकल्प बना लिया उसे होता हुआ महसूस करो, विशेषकर रात्रि में सोने से पहले जो अफर्मेशन आप करके सोएंगे , वही आपके जीवन मे प्रत्यक्ष रूप में सामने आएगा !
4. इसलिए सोने से 17 मिनेट पहले का समय बहुत महत्वपूर्ण होता है, उसमें अपने पॉजिटिव विचार फीड करके सो जाइये : चमत्कार घटेगा*!
5.अपने विचारों पर हर समय पहरा देना होगा ताकि कोई नकारात्मक विचार या अशुद्ध विचार हमारे मस्तिष्क में प्रवेश ना कर जाए !
6. बुरे विचार किरायेदार की तरह आते है और बाद में मालिक बनकर बैठ जाते हैं जिन्हें बाहर निकालना सम्भव नहीं ! अपने हर विचार को छानकर ही प्रवेश करने दीजिए*!
7. हमे सजग रहते हुए अपने प्रत्येक क्षण का आनंद लेना है!
8. पॉजिटिव ओर प्रसन्नता वाले विचारों को ही अपने जीवन का अंश बनाएं ! इसमें सदगुरु की बहुत बड़ी भूमिका होती है : वह हमें पग पग पर संभालते हैं और प्रगति के पथ पर लेकर जाते हैं*!!

अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा-सद्भावना के विशेष दिन-पितर पक्ष

अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा-सद्भावना के विशेष दिन-पितर पक्ष
भारतीय संस्कृति में पितर, पुनर्जन्म जैसे शब्दों की विशेष महिमा है। वर्ष में 15 दिन मात्र पितरों के प्रति श्रद्धा-समर्पण के लिए निर्धारित हैं। यही नहीं शास्त्रीय पद्धति में पितरों के लिए पृथ्वी की तरह निवास हेतु एक लोक होने की भी मान्यता है। जहां हमारे पूर्वजों की आत्मायें निवास करती हैं और पृथ्वी वासियों की श्रद्धा अनुसार उनकी मदद करती हैं। ऐसी मान्यता है
अश्विन मास के कृष्ण पक्ष में पितरों के श्राद्ध व तर्पण का विधान है। श्राद्ध पक्ष भाद्रपद माह की पूर्णिमा से प्रारम्भ हो पूरे 16 दिन आश्विन की अमावस तक रहता है। इन 16 दिनों तक पितरों के निमित्त श्राद्ध-तर्पण इत्यादि किए जाते हैं। यम ने नचिकेता से मृतकों पर भ्रम दूर करते हुए बताया था कि मृत्यु के उपरांत जीवात्मा किस प्रकार यमलोक, प्रोतलोक, वृक्ष, वनस्पति आदि योनियों के द्वारा भुवः लोक की यात्र करती है। ट्टग्वेद (10/16) में अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुंचाने में, वंशजों के दान पितृगणों तक पहुंचाकर मृतात्मा को तुष्ट करने व उन्हें भटकने से रक्षा करें।
विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रें में इन्हीं जीव आत्माओं के श्राद्ध-तर्पण का विधान दिया गया है। श्राद्ध का अर्थ अपने देवों, परिवार, वंश परम्परा, संस्कृति और इष्ट के प्रति श्रद्धा रखना भी है। उन्हें सुदृढ़ रखना भी है।

पितरों की दुनियांः
‘‘पालवन्ति रक्षन्ति वा ते पितरः’’ अर्थात् पितर आत्मायें पालन-पोषण और रक्षण करने वाली होती हैं। गोपथ ब्रह्मण में है कि ‘‘देवा वा ऐते पितरः, स्विष्ठकृतो वै पितरः’’ पालन-पोषण करने वाले और हित सम्पादन करने वाले पितर कहलाते हैं। यजुर्वेद का मंत्र जिसमें पितरों की प्रार्थना हैµ
अत्र पितरो मादमध्वं यथा भागया वृषायथवम्। अमीमदन्त पितरो यथा भागमावृथायिषत्।।
अर्थात् हे पितरों! आप लोगों का आना हमारे सौभाग्य का सूचक है। आप हमारे गृह में आओ और वास करो हम आपके प्रिय पदार्थों को यथायोग्य, यथा सामर्थ्य सत्कार रूप में प्रस्तुत करते हैं, आप प्रसन्न होइये और हमारे जीवन का मार्ग प्रशस्त कीजिए, ताकि हम सुखी, शांत और आनंदित रहें।
हिंदू शास्त्रें में कहा गया है कि जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं, चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प दान, पुण्य, ब्रह्मचारियों, वृद्धों, जरूरतमंद एवं पशु-पक्षी सेवा, गौ सेवा आदि की और तर्पण विधान किया जाता है, वही श्राद्ध है। माना जाता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में आ जाते हैं। पितृपक्ष में हम जो भी धन, अन्न, वस्त्र आदि का अंश पितरों के नाम सेनिकालते हैं, उसे से सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं।

आत्माविज्ञानी बताते हैं कि मृत जीवात्मा का पारस्परिक सम्पर्क-आदान-प्रदान धरती के लोगों से वैसा ही रहता है जैसे पूर्व में था। सूक्ष्म शरीरधारी प्रत्येक जीवात्मायें अपने परिवारीजनों से सहज सम्पर्क साधना चाहती हैं। अपनी उपस्थिति का अहसास दिलाने के लिए वे अनेक उपाय अपनाती हैं और अपने प्रियजनों के साथ स्नेह, सौजन्य एवं सहयोग देना चाहते हैं ऐसी मान्यता है।
यही नहीं शास्त्रें में कहा गया है कि जन्म- मरण के चक्र के तहत प्रत्येक जीव स्वर्ग-नरक, प्रेत-पिशाच, पितर, कृमि-कीटक एवं मनुष्य योनि प्राप्त करता है। छान्दोग्योपनिषद में हर जीवात्मा की विभिन्न स्थितियों का वर्णन है। गीता कहती है व्यक्ति अपने जीवन यज्ञ को करते हुए सकाम भाव होने से उसकी जीवात्मा स्वर्ग लोक जाती है और वहां विविध भोगों को पुण्यकर्म समाप्त होने तक भोगने के बाद पुनः इस मृत्युलोक में जन्म लेती है।
अखण्ड ज्योति पत्रिका में वर्णन है कि पितर ऐसी उच्च आत्मायें हैं, जो मरण और जन्म के बीच की अवधि को प्रेत बनकर गुजारती हैं और अपने स्वभाव संस्कार के तहत दूसरों की यथासम्भव सहायता करती रहती हैं। इनमें मनुष्यों की अपेक्षा शक्ति अधिक होती है। सूक्ष्म जगत् से सम्बन्ध होने के कारण उनकी जानकारियां भी अधिक होती हैं। उनके पास भविष्य ज्ञान होने से वे सम्बद्ध लोगों को सतर्क भी करती हैं तथा कई प्रकार की कठिनाइयों को दूर करने का भी प्रयत्न करती हैं। ऐसी दिव्य आत्माएं, अर्थात् पितर सदाशयी, सद्भाव-सम्पन्न और सहानुभूतिपूर्ण होती हैं। वे कुमार्गगामिता से असंतुष्ट होती तथा सन्मार्ग पर चलने वालों पर प्रसन्न रहती हैं।
श्राद्ध पक्ष में पिण्डदान और श्राद्ध कर्म के साथ दान, सेवा, उनके निमित्त गुरुकार्यों, गौ सेवा में धन आदि लगाने का महत्व भी यही है कि इनसे स्वजनों की जुड़ी भावनायें पितरों को स्पर्श करें। योगवासिष्ठ बढ़ती हैंकि मृत्यु के उपरान्त प्रेत यानी मरे हुए जीव अपने बन्धु-बान्धवों के पिण्डदान द्वारा ही अपना शरीर तृप्त हुआ अनुभव करते हैं.
आदौ मृता वयमिति बुध्यन्ते तदनुक्रमात्। बंधु पिण्डादिदानेन प्रोत्पन्ना इति वेदिनः।।
हम पितरों के प्रति श्राद्धपक्ष में अपनी श्रद्धा व्यक्त करके उनका आशीर्वाद लेते हैं। पितर पक्ष अपने पूर्वजों के सम्मान के लिए महत्वपूर्ण अवसर होता है।

श्री गणेश विसर्जन का महत्व | vishwa jagriti Mission

Importance of shri-ganesh-immersion

यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम्। इष्टकाम समृद्धयर्थं पुनरागमनाय च।।

अर्थात् हे देवगण! हमारी पूजा को स्वीकार करके आप स्वस्थान को पधारें, लेकिन पुनः हम अपनीइष्टपूर्ति हेतु आपका आवाहन करेंगे। यही है देवताओं के प्रति सही श्रद्धा-सम्मान, जो अनन्तकाल सेभावनाशील, पवित्र, समर्पित भक्तों को सुख-शांति, समृद्धि से भरता आया है। देवताओं का नमनपूर्वकआह्नान, सम्मान और सम्वेदनात्मक विदाई हमारी सांस्कृतिक ट्टषि परम्परा है। यही कारण है कि पूजाविधि में देवता का आवाहन, पूजन और पूजा समाप्ति के पश्चात उनका विसर्जन भी करते हैं।खासबात यह है कि जिस तत्व से सम्बन्धित देवता उसी तत्व में उसका विसर्जन-विलय भी जरूरी है। चूंकि गणेश जी जलतत्व के अधिपति हैं, अतः गणपति को जल में विसर्जित करने कीश्रेष्ठ परम्परा चली आ रही है। आइये! गणपति विसर्जन कर उनसे विघ्न-बाधाओं को दूर करने,मनोरथपूर्ण करने की प्रार्थना करें, साथ ही आगामी वर्ष पुनः पधारने का निवेदन भी, जिससे जीवनसौभाग्य के द्वार खुल सकें। इसलिए विसर्जन के समय यह कहा भी जाता है ‘‘गणपति बप्पा मोरियाअगले बरष तु जल्दी आ।’’

सद्गुरु साधक हैं युक्ति, भुक्ति और मुक्ति के | vishwa Jagriti Mission

सद्गुरु साधक हैं युक्ति, भुक्ति और मुक्ति केसद्गुरु साधक हैं युक्ति, भुक्ति और मुक्ति के। शब्द तीन हैं युक्ति, भुक्ति और मुक्ति, किन्तु इनमें मानव जीवन का उद्देश्य, संसार में जीवन और मोक्ष के रहस्य छिपे हुए हैं अर्थात् ये तीनों ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। यहां साधक से अभिप्राय साधना करने वाला नहीं है, अपितु इसका अर्थ है कि केवल सद्गुरु ही हैं ऐसे साधन जो हमें लोक में सुख से जीने और परलोक प्राप्त करने के तरीके बताते हैं। शिष्य का समूचा जीवन सिमट जाता है इन तीनों में। पहला ही शब्द हमारे इस जीवन के सभी पक्षों को अपने अन्दर समेटे हुए है, तीसरे शब्द मुक्ति के रहस्यों को भी गुरुदेव बतलाते ही हैं। मैं यहां जीवन के केवल संकट पक्ष की चर्चा करूंगा।
जीवन के संकट पक्ष से मेरा अभिप्राय है जब स्थितियां मनुष्य की समय और पकड़ से बाहर हो जायें, बुद्धि काम न करे, हर समय मस्तिष्क सोच में उलझन में कोई काम करे, तो जो सोचा, परिणाम उसके विपरीत, तब सब साथ छोड़ जाते हैं, घर वाले भी, जिन के लिये आप जीवन भर सब कुछ करते रहे, वे भी ताने देते हैं, सकपकाते हैं और व्यक्ति सब ओर से हारकर निराशा में, अवसाद में, डिप्रेशन में चला जाता है। ऐसी स्थिति को संकट की स्थिति कहते हैं और तब सद्गुरु सम्भालते हैं, जीवन दान देते हैं।, विश्वास जगाते हैं, हौंसला देते हैं और अपने आशीष का हाथ शिष्य के सिर पर रखकर उसे मृत्यु अर्थात् आत्म हत्या के द्वार से वापिस ले आते हैं। इससे बड़ा उपकार क्या होगा? दो उदाहरण इसे स्पष्ट करते हैं।
उदाहरण देने से पूर्व, वर्तमान समय में गुरुदेव जी ने दो कृपाएं की हैं, कर रहे हैं  कोरोना काल में। कृपाएं तो उनकी सब पर अनेक हैं, किन्तु मार्च 2020 के मध्य से आनन्दधाम की पावन माटी से, गुरुधाम रुपी तीर्थ से, सात्विक ज्ञान की भगीरथी प्रवाहित कर दी गुरुदेव जी ने। सम्पूर्ण विश्व में शिष्यों का जीवन जैसे धन्य हो गया, ज्ञान का ज्ञान और लाईव गुरु दर्शन। आतंक, भय और निराशा काल में वैदिक ज्ञान, गीता ज्ञान, गुरुगीता ज्ञान, ध्यान साधना, मन्त्र सिद्धि साधना, मृत संजीवनी साधना से शिष्यों के जीवन को धन्य कर दिया।

गुरुदर्शन हो गये, गुरुपूजन हो गया, गुरुज्ञान मिल गया और सिद्ध सफल हो गई गुरुपूर्णिमा चांद भी मिल गया, चान्दनी भी मिल गई स्नाान भी हो गया, ज्ञान गंगा में और गुरुदर्शन का पुण्य भी अर्जित कर लिया। यह है आनन्द कृपा से गुरुकृपा की प्राप्ति।
पहला उदाहरण एक तमिल विद्यार्थी का है। स्कूली शिक्षा में श्रेष्ठतम, विज्ञान में शत-प्रतिशत अंक हर कक्षा में, आई- आई- टी मद्रास से इंजीनियरिंग में प्रथम, कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय से एमबीए किया, अमेरिका में अच्छी सर्विस मिल गई, एक सुन्दर शिक्षित तमिल कन्या से विवाह हो गया, पांच कक्षों वाला विशाल मकान खरीद लिया, दो बच्चे हो गये, सुखद, हंसता-खेलता मुस्कुराता चहचहाता जीवन, दो महीने पूर्व परिवार सहित आत्महत्या कर ली।  कैलीफोर्निया इन्टीट्यूट ऑफ किनीकल साईकालोनी से इस पर शोध किया और निष्कर्ष निकाला कि वह संकट की स्थितियों से घबरा गया, कोरोना में उसकी नौकरी छूट गई, मकान की किश्त नहीं दे पाया, घर चलाना मुश्किल हो गया और घबराहट में पूरा परिवार समाप्त कर लिया।

इस दुर्घटना की तरह मुम्बई के सफल कलाकार सुशान्त राजपूत की सच्ची तात्कालिक घटना है, उसने भी विपरीत परिस्थितियों में विषाद में आत्महत्या कर ली। अत्यन्त योग्य सफल विद्यार्थी, मुस्कराते स्वभाव वाला सफल एक्टर, कई कारणों से फिल्म उद्योग में स्थितियां उसके विपरीत कर दी गईं या हो गईं, कारणों की छानबीन हो रही है।
गुरुदेव सर्वदा सुरक्षा कवच बनकर साथ खड़े रहे। सब शिष्यों के साथ संग-संग रहते हैं गुरुदेव। इसी कारण गुरुदेव अपने प्रवचनों में भावनात्मक और संकट स्थिति वाले कोशेन्ट की चर्चा करते हैं शिष्यों की भलाई के लिये। कोरोना काल में शिष्यों को कितना बल दिया, साहस दिया, बहुत कुछ दिया, जिस का उल्लेख किया गया। शब्दकोश में कोशेन्ट का अर्थ भज फल या उपलब्धि दिया गया है।
कोशेन्ट चार प्रकार का होता है-
1- इन्टैलीजैंस कोशेन्ट – बुद्धिमता कोशेन्ट
2- इमोशनल कोशेन्ट – भावनात्मक कोशेन्ट
3- सोशल कोशेन्ट – सामाजिक कोशेन्ट
4- एडवरसटी कोशेन्ट – संकट या विपरीत काल कोशेन्ट
पहले का आपकी शैक्षणिक योग्यता से सम्बन्ध है, दूसरे का भावनाओं से जुड़ी बातों या घटनाओं से सम्बन्ध है, सोशल में आप सामाजिक जीवन में कैसे सम्बन्ध बनाते हैं और चौथे का सम्बन्ध उन स्थितियों से होता है, जो आपके जीवन में धीरे-धीरे अचानक आ गई हैं। चौथी स्थिति में बहुत सावधान, सतर्क, शान्त, धैर्यवान और सन्तुलन रखने की महती आवश्यकता होती है। विश्व में हर स्तर पर सैकड़ों हजारों उदाहरण हैं, जब बड़े-बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति भी इसके शिकार हो गये। उन उदाहरणों में जाना उचित नहीं है।

मुख्य उद्देश्य यह है कि परमपूज्य सद्गुरुदेव जी महाराज ने विश्व में सम्पूर्ण मानव जाति पर, विशेष कर अपने शिष्यों पर असंख्य उपकार किये हैं, चाहे वे लौकिक सफलताओं या विफलताओं से सम्बन्धित हों, ईश्वरीय ज्ञान से सम्बन्धित हों, शिष्यों के लोक और परलोक दोनों को सुधारा हो। गुरुवर ने इसीलिए तो प्रारम्भ में भारत देश की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को बारीकी से देखने के लिये भ्रमण किया, फिर जो स्वयं ज्ञान, ध्यान, जप, साधना, अंतर्बोध से प्राप्त किया, उसे इन चालीस बयालीस वर्षों में जनसाधारण के दुखों को कम करने और सुख देने के लिये उन्हें बांट दिया। गुरुदेव ईश्वर के अवतार हैं, ज्ञान-विज्ञान के असीमित सागर हैं, कोमल-करुण हृदय वाले महामानव हैं। ईश्वर गुरुदेव जी को स्वस्थ, सुखी, दीर्घ आयु देने की कृपा करना।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।।

गुरुकृपा एवं गौ आशीर्वाद का दोहरा लाभ पायें | sudhanshu Ji Maharaj

Get double benefit of Gurukrupa and cow blessings

 

गुरुकृपा एवं गौ आशीर्वाद का दोहरा लाभ पायें

गाश्च शुश्रूषते यश्च समन्वेति च सर्वशः।
तस्मै तुष्टाः प्रयच्छन्ति वरानपि सुदुर्लभान्।।
अर्थात् जो व्यक्ति गायों की हर विधि से सेवा करता और उस पर सर्वस्व समर्पित करता है, उससे संतुष्ट होकर गौएं उसे अत्यंत दुर्लभ वर प्रदान करती हैं।
घस मुष्टिं परगवे दद्यात् संतत्सरं तु यः।
अकृत्वा स्वयमाहारं व्रतं तत् सार्वकामिकम्।।
जो व्यक्ति एक वर्ष तक प्रतिदिन स्वयं भोजन करने से पहले गाय को एक मुट्ठी घास खिलाता है, उसका यह सेवा संकल्प जीवन की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करता है।
वास्तव में गाय आशीर्वाद ही नहीं देती, अपितु गौ सेवा से हमारे जीवन में एक रक्षाकवच भी बनता है, जो हर परिस्थिति में व्यक्ति के साथ रहता है। वह कष्ट-कठिनाइयों में गौसेवक का संरक्षण करता है। गौ सेवा घर-परिवार की समृद्धि को भी जगाता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात है कि यदि जिस गाय की सेवा की जा रही है वह गाय गुरु आश्रम की हो, तो उसके तीर्थ परिसर व गुरुसत्ता से जुड़ी होने के कारण गौ सेवक पर कृपा अनन्तगुना बढ़ जाती है। गुरुकुलों, गुरु आश्रमों, गुरुतीर्थों में इसीलिये अनन्त काल से गौ सेवा, गौशाला स्थापना का विधान चला आ रहा है।
भारतीय संस्कृति में गुरु, गाय, गुरुआश्रम एवं गुरु आराधना का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। युगों-युगों से साधक गुरु भक्त व शिष्य वहां आकर गौसेवा कर अपने दुख-कष्ट से छुटकारा पाते आ रहे हैं। पूज्यश्री सुधांशु जी महाराज ने इस संकल्प से ही अपने आनन्दधाम आश्रम में गौसेवा परम्परा का शुभारम्भ किया है। आश्रम में गुरुदेव स्वयं नित्य गौसवा करके भक्तों को प्रेरणा देते हैं कि देश में गौ सेवा की संस्कृति को बढ़ावा मिले। इस हेतु विश्व जागृति मिशन के अन्य आश्रमों में भी गौशाला का अभियान जोड़ रखा है।
आनन्दधाम तपोमय तीर्थ में वर्षों से देश-विदेश के हजारों साधक गौसेवा के लिए पधारते हैं तथा गुरु आशीर्वाद के साथ-साथ गौसेवा द्वारा जीवन में अपने पुण्य-परमार्थ जगाते हैं। सद्गुरुदेव ने तपोमय क्षेत्र आनन्दधाम की इस गौशाला को कामधेनु नाम दिया है, यह है भी उसी तरह, क्योंकि यहां गौसेवा करने वाला खालीहाथ कभी नहीं जाता। कोरोना महासंकट मिटने के बाद जब कभी आप आनन्दधाम आश्रम पधारें, तो यहां गौसेवा से जुड़ें, अपने हाथों गायों को चारा खिलायें तथा गुरु कृपा, गौ आशीर्वाद से अपने परिवार का सुख-शांति, समृद्धि, आनन्द, सौभाग्य जगायें।