अन्दर की प्रसन्नता और सम्पन्नता हमें बनाती है योगी। महाभारत में एक कथानक है कि घटोत्कच्छ के मरने के बाद सारा पाण्डव दल दुःख से रो रहा था, लेकिन भगवान कृष्ण के चेहरे पर मुस्कुराहट थी। यह देखकर भीम को गुस्सा आया, तो उन्होंने पूछा-हे मधुसूदन! मैं अपने दुःख में दुःखी हूं, आपके चेहरे पर मुस्कुराहट किसलिए? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-भीमसेन युद्ध भूमि में जब कोई अपने कर्त्तव्य के लिए अपने प्राणों की बलि देता है, उसके लिए हम आंसू बहाकर उसकी वीरता को अपमानित करते हैं।
अतः सम्मान से उसे याद करो और उस भविष्य के लिए सोचो, जिस भविष्य के लिए उसने बलिदान दिया है और मैं उस भविष्य की तरफ देख रहा हूं।
भूत और भविष्य के बीच वर्तमान बनकर खड़े महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों को समझाते हुए आगे कहते हैं कि-हे भीमसेन! आने वाला समय इस पाण्डव दल के लिए अच्छा है। धर्मयुद्ध में हम जीत रहे हैं। घटोत्कच्छ की बलि निष्फल नहीं होगी। उसके बलिदान ने आने वाले भविष्य में एक महान सफलता सामने लाकर खड़ी कर दी है। उसको देखकर मैं मुस्करा रहा हूं और तुम अपने स्वार्थ को लेकर दुःखी हो रहे हो। भीमसेन श्रीकृष्ण के इस महत्वपूर्ण दूरदर्शी तथ्य को सुनने के बाद सन्तुष्ट हुए और कहे कि क्षमा करना जिस तरह से आप देखते हो, हम नहीं देख सकते। वास्तव में यही योगावस्था है। अगर कष्ट वाली स्थिति में भी मुस्कुराना सीख जाएं, तो योग जीवन में आ ही जाएगा और आप योगी कहलाओगे। वास्तव में जीवन का भी सार यही है।
जीवन के बहाव में उतार चढ़ा तो आते ही रहेंगे, अतः इस दौर में चीजें आएं या जाएं लेकिन आप अन्दर से प्रसन्न रहो। प्रसन्नता में ही सम्पन्नता है। यही भाव योगावस्था है। सम्पन्नता का आशय धन-सम्पत्ति से नहीं है, अपितु इस बात में कि आप चैन की नींद सो सकें, हर परिस्थिति में शांति-संतोष अनुभव कर सकें, तो मानकर चलें कि आप सम्पन्न हैं। इसी प्रकार परिवार के अन्दर लमेल है, प्रेम है, सौहार्द्र है तो आप सम्पन्न हैं। आपका शरीर स्वस्थ है तो माना जाना चाहिए कि आप अन्दर की अमीरी से भरे हैं। यह अंदर की अमीरी ही है, जो व्यक्ति को भगवान के निकट तक लेकर जाती है। उसे योगी बनाती है, अन्यथा करोड़ों व्यक्ति हैं जो सब कुछ होकर भी दरिद्रता का जीवन जीते हैं और दरिद्र व्यक्ति कभी परमात्मा को नहीं पा सकता। वैसे भी योगी कभी अभावग्रस्थ व दरिद्र नहीं हो सकता।
इस योग का आधार भक्ति है, पर गीता के सातवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-यह भक्ति करने वाले हजारों मनुष्यों में कोई-कोई व्यक्ति ही सिद्धि तक पहुंचते हैं। अर्थात् किसी-किसी व्यक्ति की ही सिद्धि वाली स्थिति बन पाती है। हजारों लोग यदि प्रयत्न करे, तो सिद्ध होने की स्थिति बहुत कम की होगी। अपितु भगवान कहते हैं ‘‘कश्चित्’’ अर्थात् हजारों में से कोई एक ही सिद्धि के लिए प्रयत्न करेगा। इसीप्रकार ‘‘यततामपि सिद्धानां’’ अर्थात् यत्न करने वाले लोगों में भी ‘‘वेत्ति तत्वतः’’-तत्त्व से, सम्पूर्णता से तात्त्विक रूप से, कोई-कोई ही मुझे जानने वाला होता है। मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश््ियद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश््ियन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। पर पहुंचता वही है जो पूर्ण भक्त योगी होता है। जो पहुंचता है वह शांति, आनन्द, उल्लास, श्रीसमृद्धि का सहज हकदार होता है। पूज्यवर श्री सुधांशु जी महाराज कहते हैं कि उन्नति का सबसे बड़ा शिखर अगर कोई है तो परमात्मा है। शान्ति का परमधाम भी परमात्मा है। आनन्द, उल्लास और सम्पूर्ण उत्सव का समग्र रूप भी परमात्मा है। समृद्धि का सम्पूर्ण स्वरूप वही प्रभु परमपिता है, यदि वह मिल गया तो फिर कुछ और पाना बाकी नहीं रहता। वही मानव मात्र की एकमात्र मंजिल है, वही एकमात्र लक्ष्य है। पर उसकी राह पर चलने के लिए, उसका प्यारा बनने के लिए, उसे अपना बनाने के लिए अभाव से परे, दरिद्रता की जकड़न से मुक्त योगमय होना, अंदर से सम्पन्न होना, अंतःकरण की प्रसन्नता से भरा होना आवश्यक है।’’ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं जीवन में इस शिखर की प्राप्ति हेतु संतुलित होकर चलने की अवस्था योग है। आइये! जीवन में संतुलन साधें और योगमय होकर चलें, अंदर की सम्पन्नता बढ़े, अभाव से दूर हो, कृष्ण को पायें ताकि परमात्मामय हो सकें। आनंद, उल्लास और सम्पूर्ण उत्सव का समग्र रूप भी परमात्मा है। समृद्धि का सम्पूर्ण स्वरूप वही प्रभु परमपिता है, यदि वह मिल गया तो फिर कुछ और पाना बाकी नहीं रहता। वही मानव मात्र की एकमात्र मंजिल है, वही एकमात्र लक्ष्य है। पर उसकी राह पर चलने के लिए, उसका प्यारा बनने के लिए, उसे अपना बनाने के लिए अभाव से परे, दरिद्रता की जकड़न से मुक्त योगमय होना, अंदर से सम्पन्न होना, अंतःकरण की प्रसन्नता से भरा होना आवश्यक है।