मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है। मन से मान लिया जाये तो दुख और यदि मन से किसी भी प्रकार के दुख को निकाल दिया जाये तो सुख ही सुख है। यदि आप मन को एकाग्र कर शांति का अनुभव करें तो आपका निर्मल मन आपको चिरशान्ति प्रदान करेगा और आपको लगेगा कि दुनिया की सबसे बड़ी दौलत आपको मिल गई, जिस सम्पत्ति को हम दुनिया में खोज रहे थे, वह हमें अपने अंदर ही मिल गई। चैन, सुकून, शांति बाहर नहीं वह तो हमारे अंदर ही थी लेकिन हम मृगतृष्णा में भटक कर उसे बाहर खोज रहे थे। मन के शांत होने से अब आनंद ही आनंद है। अब समस्त सुखों का संगम हमारे मन में ही हो गया है और हमारा शुद्ध व शांत मन ही सबसे बड़ा तीर्थ है। ज्ञान-कर्म और भक्ति का परस्पर सम्बन्ध है। इसलिये मानव जीवन में तीनों का सामंजस्य अवश्य होना चाहिये। यदि व्यक्ति कर्म-ज्ञान और भक्ति का संतुलन बनाए रखे तो उसका जीवन व्यवस्थित हो जाता है।
ज्ञान आंख है, कर्म पांव है। आंख से देखो और पांव से चलो, बिना देखे चलना कुएं में गिरना है। सिर्फ चलना ही बाकी रहे, देखा न जाए तो वह चलना व्यक्ति को चोट पहुंचाएगा और अगर चलें नहीं केवल देखते ही रहें तो फिर उस देखने का भी कोई लाभ नहीं। इसलिये दोनों का तालमेल बनाकर आत्मा की यात्र को परमात्मा तक अर्थात् मंजिल तक पहुंचाया जा सकता है और परमात्मा रूपी मंजिल को प्राप्त कर लेना ही भक्ति है।
शरीर में ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां दोनों है -ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त होता है और कर्मेन्द्रियों से कर्म। दोनों का होना ही जीवन है। ज्ञान भी चाहिये और कर्म भी चाहिये। पक्षी के दो पंख है। एक पंख से उड़ा नहीं जा सकता। किसी रथ का एक पहिया हो तो रथ चल नहीं सकता। ऐसे ही ज्ञान के बिना कर्म नहीं हो सकता और कर्म के बिना व्यक्ति ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता। ज्ञान और कर्म के बिना व्यक्ति एक क्षण भी नहीं रह सकता है ‘न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।’ कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिये भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। प्रकृति ने हमें बनाया ही ऐसा है कि हम हर समय कर्मशील रहें कर्म के बिना कहीं ठहरा नहीं जा सकता। कर्म हमारे स्वभाव में उतर आए और गुरु से ज्ञान प्राप्त कर हम भक्ति के मार्ग पर चलते हुए ईश्वर की प्राप्ति कर लें तो समझना चाहिये जीवन सार्थक हो गया।व्यक्ति कितना भी खाली बैठे तो भी वह खाली नहीं बैठ सकता। कुछ-न-कुछ जरूर करेगा। बच्चों के अन्दर आप देखते हैं-उनका रोम-रोम कर्म से जुड़ा हुआ होता है, वे कहीं चैन से नहीं बैठ सकते-वे हिलेंगे, डुलेंगे, चलेंगे। अगर व्यक्ति चुपाचाप बैठा रहे तो मन चलता रहेगा और मन भी न जाने कहां तक लेकर जाता है। एक क्षण भी हम खाली नहीं बैठ सकते।
कर्म तो जीवन के साथ है। रुकना नहीं है, चलते रहना है। तैत्तिरेय ब्राह्मण का उपदेश हैµ‘‘चरन् वै मधु विन्दते’’ जो चला है, उसी ने जीवन का माधुर्य प्राप्त किया है। ‘‘चरन् स्वादुमुदम्बरम्’’ चलने वालों ने ही जीवन का मीठा, स्वादिष्ठ फल पाया है। सूर्य गतिमान है। संसार को प्रकाशित करता है। चन्द्रमा की शीतलता से संसार रसपूर्ण है। यहां सूर्य गतिशीलता कर्म और प्रकाश का प्रतीक है वहीं चन्द्रमा मन का परिचायक है जो हमेशा घटता-बढ़ता रहता है लेकिन सदा चलायमान है। सतत् प्रकाशित एवं रसपूर्ण होने के लिये चरैवेति-चरैवेति सूत्र को जीवन में उतरना होगा। चलते रहो, कर्म करते रहो, रुको नहीं।
प्रकृति का नियम है कि हर कोई गतिमान है। चीटियों को देखिए। छोटी-सी चींटी अन्धेरे में भी दौड़ी जा रही है। अचानक आप लाईट जलाते हैं देखकर आश्चर्य होता है कि अन्धेरे में भी चींटियां दौड़ी जा रही हैं। रात काफी हो चुकी है, पर उन्हें सोने नहीं जाना। शरीर से ज्यादा सामान उठाकर जा रही होती हैं। उनका ‘वन-वे टैªफिक’ चलता है। एक तरफ जाने का रास्ता है तो दूसरी तरफ आने की व्यवस्था कर रखी है। कहीं दोनों तरफ का मार्ग ‘टू वे टैªफिक’ भी चलता है। चीटियां बहुत तेजी से भागे जा रही हैं। लेकिन एक्सीडेंट बिल्कुल नहीं होता। बीच-बीच में प्रहरी खड़े हुए हैं, वे व्यवस्था देख रहे हैं। जो निरीक्षण कर रहे हैं, वे देख रहे हैं कि व्यक्ति के पास यदि सामान ज्यादा है तो दौड़कर जाएंगे उसका साथ देंगे। छोटे से जीवन को भी पता है कि कर्म करते रहना है खाली नहीं बैठना है वस्तुतः जीवन गति का नाम है
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रपि च ते न प्रसिद्धड्ढेदकर्मणः।।
शरीर की यात्र तभी ठीक रहती है, जब कर्म से जुड़े रहते हैं। यदि कर्म से विमुक्त हो गए तो जीवनयात्र ठीक से चलने वाली नहीं है।
कर्म नियत एवं मर्यादित होकर करना। कर्मों में कभी मत उलझो। कर्म से कर्म को काटना, कर्म से कर्म के बंधन में नहीं आना। पांव में लगे कांटे को कांटे से निकालिये। फिर दोनों ही कांटों को उठाकर फेंक दीजिये। कर्म से कर्म को काटते चले जाएं, बन्धनों को तोड़ते चले जाएं और परमात्मा की ओर अपने कदम बढ़ते जाएं, यही भगवान श्रीकृष्ण का मानव जीवन के लिये सन्देश है और यही प्रभु भक्ति है। कर्म ही पूजा है।
कर्म की भी परीक्षा होती है। यदि थोड़ा-सा कर्म करके बैठ जाएं तो बात बनने वाली नहीं है। जैसे यज्ञों का अपना विधान है। कौन से यज्ञ में कितनी आहुति देनी है, उसका विधान हैं। ऐसे ही प्रत्येक कर्म का भी एक संविधान है। कर्म एक यज्ञ है, उसमें कितनी आहुति देनी पड़ेगी, कितने पसीने की बूंदे डालनी पड़ेंगी, कितनी मेहनत करनी पड़ेगी। यह निश्चय अवश्य करें। उतनी देर तक थके नहीं, हारे नहीं और घबराएं नहीं। अपना कर्म ज्ञानपूर्वक करते जाएं। इस तरह कर्म में कुशलता आने से दुर्भाग्य दूर हटकर सौभाग्य सामने आ जाता है।
इस संसार में सफलता उन्हीं को मिलती है। जो निष्ठापूर्वक कर्मों को सम्पन्न करता है और उसके सभी कर्म बिना फल की इच्छा से प्रभु को समर्पित होते हैं। ऐसा समर्पण ही भक्ति का रूप लेता है और फिर व्यक्ति का परमात्म भक्ति में खोये हुये विशुद्ध मन में ही सभी तीर्थों का वास हो जाता है।
चारों तीर्थ धाम आप के चरणों में
हे गुरुदेव प्रणाम आपके चरणों में
❤️❤️
मेरा तो आज भी तूं है
मेरा कल भी तूं ही था
मेरा परसो भी तूं ही है