आधुनिक शिक्षानीति के परिप्रेक्ष्य में हमारे गुरुकुल
किसी राष्ट्र के चरित्र को बदलने में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। विश्व के अनेक देशों ने सदियों से अपनी शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाकर ऊँचाइयां छुईं, तो अनेक देश सही शिक्षानीति के अभाव में दरिद्रता, कंगाली, बदहाली के कगार पर आ गये। वर्तमान भारत एवं उसकी संस्कृति में अनेक परिवर्तन देखने को मिले हैं, जिसे तत्कालीन शासकों द्वारा शिक्षा नीति के सहारे लाये गये। अंग्रेजी शिक्षा नीति लार्ड मैकाले का दंश तो आज तक भारत को झेलना पड़ रहा है। वर्तमान में भारत की शिक्षा नीति में नवीनता लाकर देश के प्राचीन गौरव को वापस लाने की दिशा में हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री द्वारा उठाया कदम मील का पत्थर साबित होगा, ऐसी आशा की जा सकती है। पुनः भारत को इसके द्वारा विश्व गौरव पाने का सुयोग मिलेगा, जैसा कभी हमारे ऋषियों द्वारा स्थापित गुरुकुल परम्परा का आदर्श था। गुरुकुल शिक्षा पद्धति को भारत देश व विश्ववासी स्वर्णिम शिक्षा व्यवस्था का दर्जा आज भी देते हैं। प्रस्तुत है हमारी गुरुकुल शिक्षा पद्धति की कुछ विशेषतायें—।
हमारी गुरुकुल परम्परा एक सोच है, संकल्प है, स्वभाव है। अवधारणा है, जीवनशैली है, समाज व्यवस्था के लिए नेक इंसान देने की टकसाल है। हमारे प्राचीन ऋषियों द्वारा मानव निर्माण के लिए तैयार की गई शोधपूर्ण व्यवस्था है। जहां प्रवेश करने वाला विद्यार्थी गुरु व आचार्य के संरक्षण में कुछ वर्ष बिताने के बाद वह बालक दिखता तो उसी आकार में ही है, पर उसके अंतःकरण में श्रेष्ठ देवत्व भाव उदित हो जाते हैं। उसकी प्रकृति में आमूल चूल बदलाव आते हैं।
प्राणीमात्र के प्रति सम्वेदनाः
ईमानदारी, सहिष्णुता, सौहार्द, सेवाभाव, परिवार व्यवस्था और अतिथि सत्कार, अन्य लोगों के काम आना, दूसरों की सेवा, सहायता व उपकार करना गुरुकुल से निकलना विद्यार्थी अपना सौभाग्य समझता था। ऐसे ही दिव्य आचरण की श्रेष्ठता और चरित्र की उच्चता के चलते भारत विश्व गुरु रहा। खुद का हित साधन करने से पहले औरों के हित का ध्यान रखने की परम्परा भी तो हमारी रही। यहां लोग खाने से ज्यादा खिलाने में आनन्द महसूस करते हैं। यहां की सभ्यता में आहार खुद ग्रहण करने से पहले उस चींटी, गाय, कुत्ता आदि पालतू व अन्य सान्निध्य के जीवों के आहार का ख्याल रखा जाता था। प्रसाद स्वरूप बचा हुआ भोजन खुद ग्रहण करने का यहां रिवाज आज भी बहुत से भारतीय परिवारों में देखी जाती है, यह सब कुछ गुरुकुल की ही देन है।
सेवा-सद्भावः
यहां गरीब से गरीब भी परोपकार के लिए बाग-बगीचे लगवाने, कुएं-तालाब खुदवाने, अन्न क्षेत्र चलवाने, अस्पताल-धर्मशाला खुलवाने, देवालयों का निर्माण करवाने, विद्यालयों में शिक्षण आदि जनकल्याणकारी कार्यों को अंजाम देने में गौरवान्वित महसूस करता था। हमारी गुरुकुल शिक्षा नीति हर भावी पीढ़ी में यही संस्कार तो उगाता आ रहा है सदियों से। वास्तव में गुरुकुल ऐसे ही दिव्य मानवों के निर्माण के केन्द्र हैं, जहां गढ़े गये विद्यार्थी परिवार-समाज के बीच अपने शुभ संस्कारों, ज्ञान, चरित्र, स्वभाव, सहकारिता पूर्ण दृष्टिकोण के सहारे देवत्व की स्थापना करते हैं और धरती पर स्वर्ग ले आने के लिए जीवन जीते हैं।
गुरुकुल पद्धति के विद्यार्थियों को प्राचीन संस्कारपरक आर्ष ग्रंथों की शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान परक विषयों के प्रति भी निष्णात बनाया जाता है। इन्हें धार्मिक सद्ग्रंथों का विज्ञान सम्मत अध्ययन इसलिए कराया जाता है, जिससे वे अपने जीवन को विसंगतियों वाले अन्धकार व अविद्या से मुक्त कर समाज, राष्ट्र तथा विश्व को दिव्य ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर सकें। गुरुकुलों की दिनचर्या भी विज्ञान सम्मत एवं ऋषि परम्परा पूरक सेवा संकल्पों के अनुरूप रखी जाती है।
मनोविज्ञान का संयोजनः
यहाँ बच्चों को ऐसा वातावरण दिया जाता है कि उनका जागरण एवं शयन आनन्द से भरा रह सके। प्रातःकाल जागरण, भगवद् स्मरण, उषापान, नित्यकर्म, व्यायाम, यज्ञाग्निहोत्र, प्रातराश, अध्ययन, दोपहर भोजन, विश्राम, पुनः अध्ययन, सन्ध्योपासना, रात्रि भोजन, भ्रमण, अध्ययन, फिर ईशस्मरण के साथ रात्रि शयन तक सूक्ष्म मनोविज्ञान का कुशल संयोजन देखने को मिलता है। गुरुकुल के विद्यार्थियों की इस तपः पूर्ण दिनचर्या में उनके आचार्य साथ-साथ सहभागीदार बनकर चलते हैं।
इस प्रकार बच्चों की बहुमुखी एवं सर्वांगीण प्रतिभा विकास का अनुपम उदाहरण होते हैं यह गुरुकुल। वर्तमानकाल में स्कूल, कॉलेज की शिक्षाओं में विद्या की कीमत ली जाती है, जबकि आज भी गुरुकुलों का लक्ष्य राष्ट्र की नयी पीढ़ी गढ़ना है, वह भी निःशुल्क।
सर्वांगीण विकासपरक शिक्षणः
विद्यार्थी एवं आचार्य के बीच गहन समन्वय एवं उनके आचार्यों की सतत करुणाभरी दृष्टि के परिणाम स्वरूप गुरुकुलों में शिक्षा ग्रहण करने वाले सभी विद्यार्थी एक से बढ़कर एक संवेदनशील, सेवाभावी, मेधावी, कुशाग्र बुद्धि वाले बनते हैं। ये आचार्यों के दिशा निर्देशन में अपने पाठ्यक्रम को पूरा करते ही हैं, साथ ही प्राचीन-अर्वाचीन वांगमय वेद-उपनिषद, रामायण, पुराण, स्मृति-ग्रंथ, महापुरुषों के जीवन चरित्र और अन्य सामाजिक, वैज्ञानिक, पठनीय साहित्य के स्वाध्याय, चिंतन-मनन-शोध में भी अहर्निश संलग्न रहते हैं।
बच्चों का सर्वांगीण विकास हो इस हेतु संगीत सहित अनेक प्रकार की जीवन से जुड़ी शिक्षा से भी जोड़कर इनमें समाज के लोकरंजन से लोकमंगल की अवधारणा जगाई जाती है। कर्मकाण्ड की कक्षाओं से लेकर जप-तप-यज्ञ-अनुष्ठान-ज्योतिष विद्या, दर्शन, नीति, व्याकरण आदि में भी विशेष अभिरुचि जागृत की जाती है। विद्यार्थियों को शारीरिक रूप से सबल बनाने के लिए नित्य नियम पूर्वक व्यायाम, खेल-क्रीड़ा की विशेष ट्रेनिंग देकर प्रतियोगिताओं के लिए इन्हें तैयार किया है, जाता जिससे राष्ट्रहित में अतिरिक्त कुशलता ला सकें। वास्तव में विद्यार्थियों की प्रतिभा पूर्ण विकसित हो, इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्हें दिव्य वातावरण देने का कार्य गुरुकुल करते हैं। ऐसा विद्यार्थी गढ़ना जिससे यह राष्ट्र अपने गौरवपूर्ण परम वैभव को पा सके, यही गुरुकुल और आचार्य दोनों का लक्ष्य होता है।
खेल, श्रम और सेवापरक शिक्षणः
मन को एकाग्र एवं व्यक्तित्व के विकास के लिए खेल, श्रम और सेवा भी महत्वपूर्ण क्रिया है, यह बात गुरुकुल में प्रारम्भ से ही अनुभव करायी जाती है। शारीरिक विकास के लिए खेल, श्रम और सेवा तथा व्यायाम से उसे जोड़ा जाता है। ऋषियों द्वारा अनुसंधित उपयोगी योगासन, सर्वांगपूर्ण व्यायाम इस विधि से कराया जाता है कि विद्यार्थियों के जीवन में एकाग्रता एवं प्रसन्नता पैदा हो सके। नियुद्ध जैसी कलायें गुरुकुल की प्राचीन विरासत में हैं, इससे भी विद्यार्थी जुड़ते हैं।
हंसने से मस्तिष्क विकसित होता है, यह कहावत नहीं विज्ञान है। गुरुकुलों में विद्यार्थी को दिन में अनेक बार निःसंकोच होकर हंसने का अवसर दिया जाता है। हंसने का आशय किसी पर व्यंगात्मक प्रयोग नहीं, अपितु अच्छी प्रवृत्तियों पर आंतरिक प्रसन्नता भाव जगाना है। इसी प्रकार स्वस्थ पूर्ण श्रम से बच्चे में धैर्य भाव विकसित होता है। आज की शिक्षा में तो यह सब गायब सा हो गया है। मन में गांठ खोलने, स्वभाव को सौम्य, शिष्ट और प्रसन्नचित हंसमुख बनाकर रखना बच्चों के साथ देश के उज्जवल भविष्य का संकेत है। इसलिए गुरुकुल में योग-व्यायाम खेल, श्रम, सेवा के कई बहाने दिये जाते हैं।
व्यावहारिक चुनौतियों से जुड़ावः
सफलता के शिखर पर पहुंचने के लिए बच्चों को ऐसे व्यवहार परक सूत्र सिखाये जाते कि छोटी-छोटी असफलताओं में वह हताश न हों, सफलता की ऊंचाई पर पहुंचकर, वहां स्थिर रहने, निरन्तर अपनी क्षमताओं को बढ़ाते, विकास की यात्रा को लगातार जारी रखने के अभ्यास कराये जाते। इसके लिए उन्हें समाज व्यवस्था के अनेक व्यावहारिक प्रयोगों से गुजारा जाता है। व्यवहारिक सूत्रों में सफलता के लिए सबसे पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करना, लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण, असफलता से डरकर प्रयास कभी न छोड़ना, आलस्य और प्रमाद को अपने पास मत आने देना, अहंकार से सदैव बचकर रहने की कला, सीखने की लालसा, लगन और मेहनत को बढ़ाते रहना, हिम्मत और हौसला कभी मत हारना, चुनौतियों का डटकर सामना करना। जैसे सूत्रों का व्यावहारिक प्रयोग उनसे कराये जाते, ताकि बुरी से बुरी विपरीत स्थिति में वे हताश-निराश न हों और अपने को खड़ा कर सके। श्रेष्ठ स्तर के निर्णय करने की आदत बनाना भी उनके शिक्षण का हिस्सा रहता। संतुलन बनाकर शांति से परिस्थितियों पर विचार करना आदि गुण गुरुकुल के आचार्यों द्वारा विद्यार्थियों में विकसित कराये जाते हैं।