माता-पिता, बुजुर्गों के प्रति सम्मान सांस्कृतिक तप | Sudhanshu ji Maharaj

Respect for parents, elders, cultural tenacity

भारतीय ट्टषि प्रणीत इस संस्कृति पर पिछली कुछ शताब्दियों में अनेक आघात हुए। आक्रमण केवल राजनीतिक एवं सैन्य ही नहीं थे, अपितु इन हमलों ने देश की संस्कृति, जीवन मूल्य, संस्कार, जीवन शैली सबको छिन्न-भिन्न कर दिया है। परिणामतः अन्य सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ, समाज के अपने वृद्धजनों, माता-पिता व अग्रजों के प्रति दृष्टिकोण में भारी अंतर आया। रही-सही कसर 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उपजी उपभोगवादी विचारधारा ने पूरी कर दी। इसने तो संयुक्त परिवारों के विघटन को जन्म दिया और भारत के बड़े-बूढ़ों के सामने समस्याएं उत्पन्न हुईर्ं। वे उपेक्षा, अकेलेपन व असुरक्षा के शिकार हुए। उन बुजुर्गों की संताने, अर्थात् नई पीढ़ी भी परिस्थिति बस यह सब होते देखती भर रह गयी। क्योंकि उसके सामने जीवन की आर्थिकी का भयावह प्रश्न जो खड़ा था। इससे परिवार टूटे, वे संस्कार टूटे जिनके सहारे नई पीढ़ी को मातृदेवो-पितृदेवो भव का संदेश मिलता था। दुःखद पहलू यह कि घर छूटा और एक तरफ नई पीढ़ी अपने आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए भटकने लगी। दूसरी ओर अनुभव समेटे वृद्धगण बेसहारा और लाचार जीवन जीने लगे। दोनों पीढ़ियां आज एक दूसरे के आमने-सामने जो प्रतिद्वन्द्वी बनकर खड़ी हैं, उसमें सांस्कृतिक क्षरण एवं आर्थिक अतिमहत्वाकांक्षा प्रमुख कारण है।
सम्बन्धों का महत्व समझेंः
यही नहीं वृद्धगणों को प्राकृतिक एवं स्वाभाविक रूप से अनेक शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं के शिकार होते देख भी अपनी महात्वाकांक्षावस युवा-पीढ़ी उनसे कतराने लगी। युवावर्ग उपयोगिता की दृष्टि से माता-पिता के प्रति देखने लगा, तो बुजुर्ग पीढ़ी युवावर्ग पर स्वार्थी, संस्कार हीन होने का आरोप लगाने लगी। हमें दोनों पीढ़ियों को एक धुरी पर लाकर भारत भूमि को इस दंश से उबारना होगा। इसके लिए प्राचीन ट्टषि परम्परा को पुनः आत्मसात करना होगा।
भारत की संस्कृति एवं चिन्तन शैली में मातृ देवो भव, पितृ देवो भव अर्थात् माता-पिता देव स्वरूप माने गये हैं, मानवीय सम्बन्धों के इस पक्ष का हमारे पवित्र ग्रन्थों में विस्तृत उल्लेख है। शास्त्रें में माता-पिता, गुरु व बढ़े भाई को कर्म या वाणी द्वारा अपमानित न करने का स्पष्ट संदेश दिया गया है।
आचार्येश्च पिता चैव, माता भ्रात च पूर्वजः। नर्तिनाप्यवमन्तव्या, ब्राह्मणेन न विशेषतः।।
कहते हैं ‘‘आचार्य, माता-पिता, सहोदर बड़े भाई का अपमान दुःखित होकर भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि आचार्य परमात्मा की, पिता प्रजापति की, माता पृथ्वी की और बड़ा भाई अपनी स्वमूर्त्ति होता है।’’ हमें परस्पर सम्बन्धों के महत्व बताने होंगे।
सलाह लें, सम्मान देंः
यही नहीं भारत में अनन्तकाल से कोई भी निर्णय करने से पूर्व वृद्धों-बुजुर्गों से परामर्श लेने की परम्परा चली आ रही है। पर बुजुर्गों के चरण छूना, उनसे बातें करना, उनके सुख-दुःख की जानकारी रखना, कठिनाईयों के निराकरण में उनसे परामर्श लेना, उनकी शारीरिक-भावनात्मक व मन अनुकूल आवश्यकताओं का ध्यान रखना, उनकी छोटी-सी भी आज्ञा का जहां तक संभव हो पालन करना, उनसे आशीर्वाद लेने के अवसर खोजना आदि हमारी संस्कृति के मूल्य रहे हैं। यह कटु सच है कि ‘‘संतान उत्पन्न होने, गर्भधारण, प्रसव वेदना, पालन, संस्कार देने, अध्ययन-शिक्षण आदि के समय माता-पिता घोर कष्ट सहते हैं, अपने को निचोड़ देते हैं। जिसका सैकड़ों व अनेक जन्मों में भी बदला नहीं चुकाया जा सकता है। यह बात नई पीढ़ी को गहराई से सोचना होगा।
अवमानना से बचेंः
सच में मानवीय व्यवहार, शिष्टाचार तक से अपनी ही संतान द्वारा अपने माता-पिता व परिवारिक बंधु-बांधवों को उपेक्षित होना पड़े तो अस“य पीड़ा होना स्वाभाविक है। अतः अपने मूल्यवान शिष्टाचार निर्वहन की हर युवा से पुनः अपेक्षा है। यदि जिनके सान्निध्य में हम रहे हैं, उनकी ही अवमानना होगी तो न तो नई पीढ़ी को सुख मिलेगा, न शांति। ऐसे में समाज व राष्ट्र निर्माण की कामना भी व्यर्थ साबित होगी। कहा भी गया है कि सैद्धान्तिक रूप से मतभेद के बावजूद नई पीढ़ी द्वारा बड़ों को सम्मान देने का उच्च आदर्श निर्वहन करना ही चाहिए। क्योंकि इससे युवाओं का हित है, साथ नई पीढ़ी जो आने वाली है उसे भी सही दिशा मिलेगी। हमारे यहां माता-पिता और गुरु तीनों की शुश्रुषा को श्रेष्ठ तप कहा गया है। माता-पिता और गुरु भूः, भुवः, स्वः तीन लोक व ट्टग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद कहे गये हैं। इनके सम्मान करने से तेज बढ़ता है। महर्षियों, संतों ने जगह-जगह माता-पिता और गुरु की सेवा के श्रेष्ठ फल का बखान करते हुए कहा कि ‘‘जो व्यक्ति व गृहस्थ एवं बुजुर्ग तीनों का आदर, सम्मान व सेवा करके उन्हें प्रसन्न करता है, वह तीनों लोकों का विजेता बनता है और सूर्यादि देवताओं के समान तेजस्वी, कीर्तिवान बनता है। शास्त्र कहते हैं व्यक्ति अपनी माता की भक्ति व सेवा से मृत्युलोक को, पिता की भक्ति से अन्तरिक्ष लोक और गुरु की सेवा से ब्रह्मलोक को जीतता है।
आचार-शिष्टाचार अपनायेंः
भारतीय संस्कृति में बुजुर्गों का सम्मान इतना कूट-कूट कर भरा था कि उसी प्रेरणा से मृत माता, पिता या पितरों के लिए भी श्राद्ध किये जाते हैं। ऐसे में जीवित माता पितादि पालक वृद्धजनों की प्रसन्नता के लिए प्रतिदिन उन्हें आवश्यक अन्न, जल, दूध, दवा अथवा अन्य जीवनोपयोगी व्यवस्थाओं से उन्हें क्यों मरहूम किया जाना, समझ से परे है।
पूज्यश्री सुधांशु जी महाराज कहते हैं माता-पिता को देवतुल्य मान कर उनकी सेवा व सुश्रुषा करना संतान का कर्तव्य है। यदि प्राचीन संस्कृति को पुनर्जागृत करना चाहते हैं, तो हमें इन जीवन आचार व शिष्टाचार के मूल्यों को अपने परिवार के बीच स्थापित करना ही होगा। वैसे भी सन्तान का किसी विशेष परिवार में जन्म लेना किसी प्रयास का परिणाम नहीं है, अपितु मनुष्य के सुकर्म का प्रभाव है। पूर्व निर्धारित है, इसलिए भी उनके प्रति उचित शिष्टाचार निर्वहन हर नई पीढ़ी के लिए जरूरी है।’’ वैसे भारतीय संस्कृति अनन्तकाल से परोपकार, त्याग, आज्ञाकारिता, एक दूसरे पर निर्भरता पर आधारित है। इन्हीं संस्कारों में परिवारों के वृद्धजनों की जीवनपर्यन्त देखभाल करने की परम्परा भी है। परिवारीजनों का सहज सहयोगी व्यवहार वृद्धावस्था में वृद्धजनों को अपनत्व की ताकत देता है। इस भावनात्मक आदान-प्रदान के कारण उन्हें एकाकीपन की पीड़ा नहीं सहनी पड़ती। सम्बन्धों की दृष्टि से दादा-दादी, नाना-नानी के रूप में जो विशेष भूमिकायें बनाई गयी हैं, उसके पीछे भी सेवा, सहायता, सम्मान का जीवनभर रिश्ता कायम रखना ही उद्देश्य है। इससे व्यक्तिगत जीवन व परिवार दोनों सुखमय बनते हैं। आज पुनः जरूरत है कि भारतीय संस्कृति को पुनर्जागृत करके हम सब देश में परिवारों को सुखमय व आनंदपूर्ण बनायें। इस अभियान से संस्कृति की शक्ति बढ़ेगी। परिवारों में परस्पर देवत्व जागृत होगा। यही नई पी़ी का सांस्कृतिक तप है।

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